________________
साधु को खपे वैसा जो कोई अनशनादि किसी ऐसे स्थान या समय पर थोड़ा भी न दिया हो वह सुश्रावक वापरते नहीं क्योंकि वे सत्त्वशाली और विहित अनुष्ठान में तत्पर होते हैं (गुरु महाराज ने न वापरा हो वह मेरे से कैसे खाया जाय? ऐसा सत्त्व चाहिए, श्रावक के लिए विहित अनुष्ठान यह कि तप योग्य इस उत्तम भव में चल न सके इसीलिए करना पड़ता भोजन भी मुनि के पात्र में वहोराकर ही वापरें।) ।।२३९।। ।
वसहीसयणासणभत्त-पाणभेसज्जवत्थपत्ताई । जड़वि न पज्जत्तधणो, थोवावि हु थोवयं देइ ॥२४०॥
(श्रावक स्वयं) कदाच इतना धनवान न हो तो भी मकान, संथासदि शयन, पाटला आदि आसन, भोजन-पानी, औषध, वस्त्र-पात्रादि (आदि पद से कंबल आदि) थोड़े में से भी थोड़ा सुपात्र में दे। (पात्र में न दिया वह न . वापरना यह नियम) ।।२४०।।
संवच्छरचाउम्मासिएसु, अट्ठाहियासु अ तिहीसु । सव्यायरेण लग्गढ़ जिणवरपूयातवगुणेसु ॥२४१॥ ..
सांवत्सरिक, चातुर्मासिक पर्यों में, चैत्री आदि अट्ठाईयों में, पर्वतिथियों में, जिनेश्वर भगवंत की पूजा, उपवासादि तपस्या, तथा ज्ञानादि गुणों में हृदय के पूर्ण आदर बहुमान से लग जाय ।।२४१।। . साहूण चेइयाण य, पडिणीयं तह अवण्णवायं च ।
जिणपवयणस्स अहियं, सव्वत्थामेण वारेइ ॥२४२॥
मुनियों के, मंदिर, मूर्तियों के प्रत्यनीको को (क्षुद्र उपद्रव करनेवालों) और उनके निंदको को और जिन शासन का अहित करने वालों को सर्व शक्ति (यावत् प्राणार्पण) से रोकें। (अर्थात् उनका प्रतिकार करें।) (क्योंकि यह महान् पुण्य का कारण है) ।।२४२।।
विरया पाणिवहाओ, विरया निच्चं च अलियवयणाओ । . विरया चोरिक्काओ, विरया परदारगमणाओ ॥२४३॥
(अब श्रावक के विशेषकर गुणों में) स्थूल जीव हिंसा से विरत, सदा स्थूल असत्य वचन से विरत, स्थूल अदत्तादान से विरत और परस्त्रीगमन से विरत ।।२४३।।
विरया परिग्गहाओ, अपरिमिआओ अणंततण्हाओ । .. बहुदोससंकुलाओ, नरयगईगमणपंथाओ ॥२४४॥ अनंत तृष्णा के कारणभूत अपरिमित परिग्रह से विरत, क्योंकि
श्री उपदेशमाला ।
50