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बढ़ता है और वह मायामृषा का सेवन भी करता है ।। २२१ ।। ( क्योंकि प्रथम 'मैं सूत्रोक्त करूंगा' ऐसा कबूलकर अब उत्सूत्र आचरण में जाता है।) जड़ गिण्हड़ वयलोबो, अहव न गिण्हड़ सरीरबुच्छेओ । पासत्थसंगमोऽवि य, वयलोवो तो वरमसंगो ॥ २२२ ॥
(उत्सूत्र सेवी पासत्था के आहार- पानी वस्त्रादि) जो ले तों (आधाकर्मादि-दोष और आगम निरक्षेपता की अनुमोदना से) व्रत का लोप हो जाता है और जो न ले तो शरीर को कष्ट पहुँचे । अरे! पासत्था के बीच में जाकर रहना यह भी व्रतलोप वाला है। (क्योंकि "असंकिलिट्ठेहिं समं न वसेज्जा मुणि, चरितस्स जओ न हाणी" ऐसी जिनाज्ञा के भंगरूप है) उससे श्रेयस्कर यही है क प्रथम से ही ऐसों के साथ होना ही नहीं, उनसे मिलना ही नहीं ।।२२२।।
आलावो संवासो, वीसंभो संथवो पसंगो य । हीणायारेहिं समं सव्यजिणिदेहिं पडिकुट्ठो ॥२२३॥
आचार हीनों के साथ बातचीत, एक मकान में रहना, मनमेल - बात, विश्राम, परिचय और प्रसंग (वस्त्रादि की लेन-देन ) इन सबका सभी जिनेश्वरों ने निषेध किया है ।। २२३ ।।
अन्नुन्नजंपिएहिं, हसिउद्धसिएहिं खिप्पमाणो य । पासत्थमज्झयारे, बलाऽवि जड़ वाउली होड़ ॥२२४॥
पासत्थाओं के मध्य में रहने से सुसाधु बलात ( अनिच्छा से) भी कुसंग के प्रभाव से परस्पर बातचित में गिरता है और (हर्ष के उल्लास में उसके साथ) हंसना होता है। उससे रोमांच का अनुभव होता है। उससे व्याकुलता होती है। (धर्म स्थैर्य से चूक जाता है) ।।२२४ ।।
लोएऽवि कुसंसग्गी, पियं जणं दुन्नियच्छमइवसणं । निंदs निरुज्जमं, पिय- कुसीलजणमेव साहुजणो ॥ २२५ ॥
लोग भी दुर्जन की संगत के प्रेमी को, 'दुन्नियच्छ' =उद्भट वेषधारी को और अति व्यसनी को निंदते हैं। (घृणा करते हैं) ऐसे सुसाधु के मध्य में रहने पर भी निरुद्यमी (शिथिलाचारी) की और कुशीलवान से प्रेम रखने वाले की साधुजन घृणा करते हैं ।। २२५ ।।
निच्चं संकियभीओ, गम्मो सव्यस्स खलियचारितो । साहुजणस्स अवमओ, मओऽवि पुण दुग्गड़ जाइ ॥२२६॥
श्री उपदेशमाला
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