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गयी माताओं के स्तन का दूध जो पीया वह (सभी) समुद्रों के जल से भी । अति अधिक है ।।२०१।।
पता य कामभोगा, कालमणंतं इहं सउवभोगा । .... • अपुव्वं पिय मन्नड़, तहवि य जीवो मणे सुक्ख।२०२॥
इस जीवने अनंत काल संसार में शब्दादि विषयों के भोगों को प्राप्त किये और उनको भोगे भी फिर भी जीव मन में विषय सुख को पूर्व में देखे ही न हो ऐसा समझता हैं ।।२०२।।
जाणइ य जहा, भोगिड्डिसंपया सब्वमेव धम्मफलं । .. तहवि दढमूढहियओ, पाये कम्मे जणो रमइ २०
जीव जानता है 'च' देखता है कि "उत्कृष्ट शब्दादि विषयों की प्राप्ति, अरे इतना ही क्या सभी सुंदर योगों की प्राप्ति (सुगुरु योग आदि) यह . धर्म का फल है" फिर भी गाढ़ता पूर्वक 'मूढ' भ्रांत चित्तवाले लोग पाप कार्यों में रक्त रहते हैं ।।२०३।।।
जाणिज्जइ चिंतिज्जड़, जम्मजरामरणसंभयं दुक्खं । . न य विसएसु विरज्जइ, अहो सुबद्धो कवडगंठी॥२०४॥
(सद्गुरु उपदेश से) जानता है कि (बुद्धि से) मन में बैठता है कि (विषय संग से) जन्म, जरा, मृत्यु से होने वाले दुःख उत्पन्न होते हैं। फिर भी (लोक) विषयों से विरक्त नहीं होते (तब कहना पड़ता है कि) अहो मोह ग्रंथी कितनी कठिन बंधी हुई है ।।२०४।।
जाणइ य जह मरिज्जइ, अमरंतंपि हु ज़रा विणासेइ । न य उब्विग्गो लोगो, अहो! रहस्सं सुनिम्मायं ॥२०५॥
यह भी खयाल है कि मरना है और मृत्यु न हो वहाँ तक भी जरावस्था, सफेद बाल, करचली आदि विनाशकारी कार्य होते हैं। फिर भी लोग (विषयों से) उद्वेग नहीं पाते तब अहो (हे विवेकी जन देखो कि) इसका रहस्य कितना दुर्गम है! ।।२०५।।
दुपयं चउप्पयं बहु-पयं, च अपयं समिद्धमहणं या । अणवकएडवि कयंतो, हरइ हयासो अपरितंतो ॥२०६॥
हरामी यमराज का कुछ भी बिगाड़ा नहीं फिर भी यह द्विपद, बहुपद वाले (भ्रमरादि) को और अपद (सर्पादि) को वैसे ही समृद्धिवान् को, निर्धन को अविश्रांति पूर्वक ले जाता है ।।२०६।।
श्री उपदेशमाला
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