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जाता है। (बाण फेंकने वाले पर आक्रमण करता है) ।।१३९।।
तह पुब्बिं किं न कयं?, न बाहए जेण मे समत्थोऽवि। . इण्डिं किं कस्स य, कुप्पिमुत्ति धीरा अणुप्पिच्छा ॥१४०॥..
(मुनि दुष्ट के दुर्वचनादि के प्रसंग पर सोचता है कि) मैंने पूर्व जन्म में ऐसा (अच्छा) कार्य क्यों नहीं किया कि जिस पुण्य के कारण समर्थ व्यक्ति भी मुझे सता न सके (अतः यह मेरा ही दोष है) तो अब निष्कारण क्रोध क्यों करूं? इस प्रकार विचारकर धैर्यतावान् महात्मा निश्चल रहते हैं (इस प्रकार द्वेषी पर द्वेष न करने का उपदेश दिया। अब रागी पर राग के त्याग का . उपदेश देते हैं) ।।१४०।।
अणुराएण जइस्स वि, सियायपत्तं पिया धरावेइ । तह वि य खंदकुमारो, न बंधुपासेहिं पडिबद्धो ॥१४१॥
पिता अनुराग से मुनि पर भी सफेद छत्र धरते हैं। तो भी स्कंदकुमार स्नेह पाश से बंधे नहीं ।।१४१।। ।
गुरु गुरुतरो य अङ्गुरु, पियमाइअयच्चपियजणसिनेहों । . चिंतिज्जमाणगुविलो, चतो अइधम्मतिसिएहिं ॥१४२॥
माता-पिता का, संतानों का और (पत्नी-बहनं आदि) प्रियजन का स्नेह क्रमशः दुस्त्यज, विशेष दुस्त्यज और अत्यंत दुस्त्यज होता है (अति दुस्त्यजता का कारण जीव को इन आत्माओं पर विशेष राग होता है) इन सभी पर के स्नेह का विचार करने पर (दुःखद भवों की प्राप्ति का कारण होने से) अति गहन है। अतः धर्म के अतीव पिपासु आत्माओं ने उन पर का राग छोड़ दिया है। (अप्रशस्त स्नेह साधुधर्म से विरुद्ध है) ।।१४२।।
अमुणियपरमत्थाणं, बंधुजणसिनेहवइयरो होइ । अवगयसंसारसहाव-निच्छयाणं समं हिययं ॥१४३॥
जिन्होंने वस्तु पदार्थ के स्वरूप को समझा नहीं उन्हीं को स्वजन प्रति स्नेह का बंधन होता है। (परंतु) संसार के स्वभाव को (क्षणभंगुररूप) समझने वाले का हृदय स्नेह द्वेष रहित होता है। (स्वजन अनर्थकारी होने से उन पर का स्नेह व्यर्थ है) दृष्टांत रूप में- ।।१४३।।
माया पिया य भाया, भज्जा पुत्ता सुही य नियगा य। इह चेव बहुविहाई, करंति भयवेमणस्साई ॥१४४॥
माता-पिता-भाई-भार्या-पुत्र-मित्र और दूसरे सगे-सम्बंधी यहाँ ही बहुविध त्रास देते है और विरोध भी करते है (जिसके निम्न दृष्टांत दर्शाये हैं) श्री उपदेशमाला
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