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________________ कौन जीव दुःख प्राप्त करता? और कौन (सुख प्रतिबंधक राग-द्वेष के अभाव से सुलभ) सुख मिलने से विस्मित होता? (राग-द्वेष के अभाव से) कौन मोक्ष प्राप्त न करे? (अर्थात् सभी जीव मोक्ष प्राप्त कर लेते) ।।१२९।। । माणी गुरुपडिणीओ, अणत्थभूओ अमग्गचारी अ। मोहं किलेसजालं, सो खाइ जहेव गोसालो ॥१३०॥ गर्विष्ठ, गुरु-द्रोही, गुरु से प्रतिकूल वर्तक (दुःशीलता से) अनेक अनर्थकर कार्य कारक, और मार्ग (सूत्र) विरुद्ध आचरण करने वाला, साधु . (मोघ=) निष्प्रयोजन ही (मुंडन-तप आदि) कष्ट समूह को धारण करता है जैसे गोशाला। (कष्ट क्लेश से साध्यरूप में कुछ भी फल नहीं मिलता) ।।१३०।। कलहणकोहणसीलो, भंडणसीलो विवायसीलो य । .... जीवो निच्वुज्जलिओ, निरत्थयं संयम चरइ ॥१३१॥ कलहकर, क्रोधि, युद्धकर, (दंडादि से लड़ने वाला), (कोर्टादि में) लड़ने वाला, ऐसा जीव सदा जलता हुआ क्रोधान्ध रहकर संयम की बाह्य आचरणा निरर्थक करता है। उसको संयम का कोई कार्य सिद्ध नहीं होता ।।१३१।। जह वणदयो वणं, दवदवस्स जलिओ ख़णेण निदहइ । __एवं कसायपरिणओ, जीवो तवसंजमं दहइ ॥१३२॥ जैसे वन में शीघ्र प्रकटित दावानल क्षणभर में वन को भस्म कर देता है। वैसे क्रोधादि कषाय परिणाम युक्त आत्मा तप-प्रधान संयम को जला देता है ।।१३२।। परिणामवसेण पुणो, अहिओ ऊणयरओ व हुज्ज खओ। तह वि ववहारमित्तेण, भण्णइ इमं जहा थलं ॥१३३॥ (क्या क्रोध से तप-संयम सर्वथा नष्ट होता है? नहीं) तप-संयम का अधिकतर या न्युनतर क्षय परिणाम (अर्थात् अध्यवसाय की तरतमता के) अनुसार ही होता है। फिर भी व्यवहार मात्र से स्थूल दृष्टि से ऐसा कहा जाता है कि-।।१३३।। फसवयणेण दिणतयं, अहिक्खिवतो अ हणइ मासतवं। परिसतवं सवमाणो, हणइ हणंतो अ सामण्णं॥१३४॥ साधु (साधु प्रति) कर्कश वचन बोलने से एक दिन के तप और (संयम) का नाश करता है। जाति आदि के आक्षेप (अवहेलना) करने वाला श्री उपदेशमाला
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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