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सीउण्हनुप्पियासं, दुस्सिज्जपरीसहं किलेसं च । जो सहइ तस्स धम्मो, जो धिइमं सो तयं चरइ॥११९॥
और शीत-उष्ण, क्षुधा, पिपासा, ऊँची नीची भूमि, विविध परिसहादि. (देवादिकृत उपसर्ग) कष्ट समभाव पूर्वक सहन करता है उसीको धर्म होता है। वही धर्मी कहा जाता है। क्योंकि जो निष्प्रकंप चित्त से धैर्यवान् होता है उसमें ही परिसह सहन करने रूप तपश्चर्या का आचरण होता है। (परिसह की असहिष्णुता में आर्तध्यान के कारण धर्मभंग) ।।११९।। . .
धम्ममिणं जाणंता, गिहिणो वि दढव्यया किमुअ साहू?। . कमलामेलाहरणे, सागरचंदेण इत्थुवमा ॥१२०॥ ....
(यह धीरज जिन शासन के तत्त्वज्ञों में अवश्य होती है इससे ही) सर्वज्ञ प्रणीत धर्म को जानने वाले गृहस्थ भी व्रत पालन में दृढ़ होते हैं तो साधु का तो पूछना ही क्या? (उनको तो विशेषकर दृढ़वती होना ही चाहिए) इसमें कमलामेला का हरण करने वाले सागरचंद्र (पौषध प्रतिमायुक्त) का उदाहरण है ।।१२०।।
देवेहिं कामदेवो, गिही वि व वि चालिओ तवगुणेहिं ।
मत्तगयंदभुयंगम-रक्खसघोरंट्टहासेहिं ॥१२१॥ ___ कामदेव श्रावक गृहस्थ होते हुए भी काउस्सग्ग में देवकृत उन्मत्त हाथी, सर्प एवं राक्षस के घोर अट्टहास से भी तप और गुणों से (सत्त्व से) चलित न कर सका (साधु तो विशेष विवेकवान् होने से अवश्य अक्षोभ्य होता है) ।।१२१।।
भोगे अमुंजमाणा वि, केइ मोहा पडंति अहरगई । कुविओ आहारत्थी, जताइ-जणस्स दमगुव्य ॥१२२॥
(बिना अपराध से क्रोधित होने वाला अविवेकी) कितनेक शब्दादिसुखभोग की प्राप्ति न होने से अज्ञानता से निम्न गति में गिरते हैं। जैसे (वैभारगिरि की तलेटी में) उत्सव में दत्तचित्त जन समुदाय पर आहार के लिए क्रोधित बना द्रमक-भिक्षुक ।।१२२।।
भवसयसहस्स-दुलहे, जाइजरामरणसागरुत्तारे । जिणययणमि गुणायर! खणमवि मा काहिसि पमाय॥१२३॥
अतः हे गुणों की खान शिष्य! लाखों भवों में दुर्लभ और जन्म, जरा, मृत्यु मय संसार से पार करने वाले ऐसे जिनवचन (का आदर करने) में एक क्षण भर का भी प्रमाद मत करना ।।१२३।।
श्री उपदेशमाला
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