SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परपरिवायं गिण्हइ, अट्ठमयविरल्लणे सया रमइ । डज्झइ य परसिरीए, सकसाओ दुखिओं निच्वं ॥६९॥ जो दूसरों की निंदा करता है, वचन से आठ मद के विस्तार में नित्य रमण करता है और जो दूसरों की लक्ष्मी देखकर जलता है, उसे निचे गिराना चाहता है, वह उत्कट क्रोधादि से ग्रस्त (मुनि) आत्मा नित्य दुःख संताप में रहता है ।।६९।। विग्गहविवायरुड़णो, कुलगणसंघेण बाहिरक्यस्स । नत्थि किर देवलोए वि, देवसमिईसु अवगासो ॥७॥ . विग्रह की रूचिवाला होने से सभी साधुओं ने चतुर्विध संघ. ने अवंदनीय रूप में संघ बाहर कर दिया हो तो उसे देवलोक. में देवों की सभा में भी स्थान नहीं मिलता तात्पर्य यह है कि देवलोक में भी उसे कोई अच्छा. स्थान नहीं मिलता ।।७०।। जड़ ता, जणसंववहार-वज्जियमकज्जमायरइ अन्नो । जो तं पुणो विकत्थइ, परस्स वसणेण सो दुहिओ॥१॥ जो कोई व्यक्ति लोक विरुद्ध (जैसे निंदा, चोरी, व्याभिचार आदि) अकार्य करता है (तो वह स्वयं अपने पाप से राजदंडं फांसी आदि दुःख से दुःखित होता है) परंतु जो दूसरा व्यक्ति लोक समक्ष उसकी निंदा करता है वह व्यर्थ दूसरे के दुःख से दुःखी होता है। (अर्थात् पापी आत्मा का भी अवर्णवाद नहीं करना) ।।७१।। ... सुटु वि उज्जममाणं पंचेव, करिति रितयं समणं । अप्पथुई परनिंदा, जिब्भोयत्था कसाया य ॥७२॥ कारण कि तप संयम में उद्यमवंत व्यक्ति भी १. आत्मश्लाघा, २. परनिंदा, ३. जिह्वा, ४. स्पर्शनेन्द्रिय की परवशता और ५. कषाय प्रवृत्ति ये पाँच (दूसरे दुष्कृत्य न हो तो भी) साधु को गुणरहित कर देते हैं ।।७२।। परपरिवायमईओ, दूसइ वयणेहिं जेहिं जेहिं परं । ते ते पायड़ दोसे, परपरिवाई इय अपिच्छो ॥७३॥ दूसरों की निंदा करने की प्रवृत्तिवाला, जिन-जिन दोषित वचन से दूसरों का परपरिवाद करता है वे-वे दोष उस व्यक्ति में प्रकट हो जाते हैं अतः परनिंदक का मुख ही अदृष्टव्य है ।।७३।। थद्धा छिद्दप्पेही, अवण्णवाई सयंमई चवला वंका कोहणसीला, सीसा उब्वेअगा गुरुणो ॥४॥ श्री उपदेशमाला 16
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy