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होता है। सम्यक्त्वादि गुणों में द्रढ़ सुश्रावक भी निर्मल होता है वैसे चरणकरण, मूल-उत्तर गुण में शिथिल भी 'संविग्नपक्ष-रुचि'=मोक्षाभिलाषी सुसाधु की आचरणा की रुचिवाला 'शुद्ध प्ररूपक' हो तो वह भी निर्मल होता है। गाथा में 'सुज्झइ' पद अनेकबार यह भेद बताने के लिए है कि मुनि को साक्षात् शुद्धि और शेष दो को परंपरा से शुद्धि ।।५१३।।
संविग्गपक्खियाणं, लकवणमेयं समासओ भणियं । ओसन्नचरणकरणाऽवि जेण कम्मं विसोहंति ॥५१४॥
संविग्न पाक्षिक (संविग्ने-मोक्षाभिलाषी सुसाधुवर्ग पर 'पक्ष' -सुंदर बुद्धि वाले का यह लक्षण पीछे की गाथा में कहा जायगा वह गणधरादि ने संक्षेप में बताया है कि जिससे प्राणी कर्म परतंत्रता से 'ओसन्न चरण करणावि' शिथिलाचारी प्रमादी बने हुए भी क्षण-क्षण में ज्ञानावरणादि कर्म मल को धोते रहते हैं ।।५१४।। .
सुद्धं सुसाहुधम्म कहेइ, निंदइ य निययमायारं । सुतवस्सियाणं पुरओ, होड़ य सयोमराइणिओ ॥५१५॥
संविज्ञ पाक्षिक निर्दोष साधु धर्म का प्ररूपक और अपने शिथिलाचार की निंदा-घृणा करनेवाला होता है जिससे स्वयं 'सुतवस्सियाणं' =उत्तम साधुओ के आगे अर्थात् उनके बिच में रहकर 'आज के दीक्षित से भी' सभी मुनियों से. 'अवमरात्निक' न्यून पर्यायवाला बनकर रहता है ।।५१५।।
वंदइ न य वंदावेड़, किइकम्म कुणइ, कारवे नेय । अत्तट्ठा न वि दिक्खड़, देइ सुसाहूण• बोहेउं ॥५१६॥
स्वयं सभी सुसाधु को वंदन करता है परंतु स्वयं से छोटे भी सुसाधु के पास स्वयं वंदन नहीं करवाता। स्वयं 'कृतिकर्म =साधुओं की विश्रामणादि सेवा-वैयावच्च करता है, परंतु उनके पास कराता नहीं। 'अत्तट्ठा' स्वयं से प्रतिबोधित को स्वयं के शिष्य रूप में स्वयं दीक्षित नहीं करता परंतु प्रतिबोधितकर सुसाधुओं को सौंप देता है सुसाधुओं के पास भेज देता है ।।५१६।।
ओसन्नो अत्तट्ठा, परमप्पाणं च हणइ दिक्खंतो। तं छुहइ दुग्गईए, अहिययरं बुड्डइ सयं च ॥ ५१७॥
शिथिलाचारी शिष्य क्यों न करे? तो कहा कि-शिथिलाचारी स्वयं के शिष्य रूप में दीक्षा दे तो वह उसकी ओर अपनी हत्या करता है [भाव प्राण का नाश करता है। वह शिष्य को नरकादि दुर्गति में फेंकता है और स्वयं पूर्वावस्था से अधिक भवसागर में डूबता है ।।५१७।। श्री उपदेशमाला
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