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________________ चारित्र में प्रमादी और शास्त्र के अर्थों को इधर-उधर के वाक्यों को विपरीत रूप से लगानेवाला पंडितमानी को सत्यतत्त्व का उपदेश कौन देगा? देवलोक को नजर समक्ष देखने वाले के आगे कोई देवलोक का वर्णन नहीं करता। करे तो इन्द्र से उपहास्य बने इंद्र की दृष्टि में वह तुच्छ दिखता है वैसे स्वयं की जात को जानकार मानकर बैठा हुआ उसे तत्त्वबोध देने वाले की वह हाँसी करता है। अर्थात् तत्त्वोपदेशक को तुच्छ गिनता है। वास्तव में तो ऐसे प्रबलमोह निद्रा से घिरे हुए होने से अन्यान्य उन्मार्ग प्रवृत्ति करने वाले होने से वास्तव में आगम के जानकार ही नहीं है ।।४९०।।.. ... दो चेव जिणवरेहि, जाइजरामरणविप्पमुक्केहिं । ...... लोगम्मि पहा भणिया, सुस्समण सुसावगो वाउंवि ॥४९१॥ संयम से दूर रहे हुए लोगों का वर्तन उन्मार्ग कैसे? तो कहा. किजन्म-जरा और मृत्यु से अत्यंत मुक्त जिनेश्वर परमात्मा ने जगत में (आत्म कल्याण के) दो ही मार्ग बताये हैं। एक सुसाधु होना न हो सके तो दुसरा सुश्रावक बनना (संविग्न पाक्षिक का तीसरा मार्ग सन्मार्ग का पक्षपाती होने से इन दो मार्ग में ही समावेश हो जाता है। इन दो मार्ग को ही दूसरे शब्दों में भावार्चन-द्रव्यार्चन/भावस्तव-द्रव्यस्तव कहा गया है) ।।४९१।।। भावच्वणमुग्गविहारया य, दव्यच्वणं तु जिणपूआ । भावच्चणाउ भट्ठो, हविज्ज दव्वच्वणुज्जुत्तो ॥४९२॥ 'भावार्चन' भगवान की तात्त्विक पूजा उग्र विहारी पना ही है [उग्रविहारी अर्थात् उत्कृष्ट चारित्र पालन है लंबे-लंबे विहार नहीं] द्रव्यार्चनभावपूजा की अपेक्षा से गौण पूजा पुष्पादि से जिन बिंब की पूजा है। भावार्चन से भ्रष्ट बना हुआ अर्थात् वैसी शक्ति के अभाव में वैसा पालन करने की शक्ति न होने से द्रव्यार्चन के लिए उद्यमी बनें। (क्योंकि द्रव्य पूजा भी पुण्यानुबंधी पुण्य का कारण होकर परंपरा से भाव पूजा का कारण बनती है) ।।४९२।। जो पुण निरच्वणो च्चिअ, सरीरसुहकज्जमित्ततल्लिच्छो । तस्स न हि बोहिलाभो, न सुग्गई नेय पलोगो॥४९३॥ तब जो निरच्चणो-द्रव्य-भाव अर्चन से अर्थात् चरण करण और सम्यग् जिनपूजा से रहित होता है उसे तो एक मात्र शरीर सुख के कार्यों में ही गाढ़ लंपटता होती है परभव में ऐसे को बोधिलाभ जैन धर्म की प्राप्ति का श्री उपदेशमाला 106
SR No.002244
Book TitleUpdesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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