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स्थान पर अंगा पद लेना ए आमंत्रण के लिए हे शिष्यो! जो पण्यशाली संयम श्रेणि (गुण स्थानक श्रेणि प्रास करके भी) को शिथिल करने का करता है उस प्रति अनादर करता है तो गुण प्राप्त न करने वाले से वह अधिक अधम है क्योंकि बाद में भी वह उस शिथिलता से पीछे हट नहीं सकने से वह जो शिथिलता अपनाता है उसको हटाने के लिए उद्यम करना उसके लिए अति मुश्किल होता है। क्योंकि महामोह की वृद्धि हो गयी है ।।४८२।।।
जइ सव्यं उवलद्धं, जइ अप्पा भाविओ उसमेण । कायं वायं च मणं, उप्पहेणं जह न देई ॥४८३॥
लघुकर्मी उपदेश योग्य होने से उसको उद्देशकर कहते हैं जो तुमको पूर्वोक्त और अन्य शास्त्रोक्त कथन सभी अच्छी प्रकार से समझ में आ गया हो और तुम्हारे आत्मा को उपशम यानि रागादि पर विजय से भावित किया हो तो भावी दोष के निरोध और पूर्वदोष के क्षय के लिए काया, वाणी
और मन को ऐसे शुभ में प्रवृत्त करो कि जिससे तुम उसे उन्मार्ग में प्रवर्त्तने का समय ही न दो। अर्थात् मन, वचन, काया के योग उन्मार्ग में न प्रवर्ते इस प्रकार वर्तन करना ।।४८३।।
हत्थे पाए न खिये, कायं चालिज्ज तं पि कज्जेण । कुम्मो व्व सए अंगम्मि अंगुवंगाइं गोविज्जा ॥४८४॥
काय योग के नियंत्रण में हाथ पैर को निष्प्रयोजन नहीं चलाने, काया की प्रवृत्ति भी जैसे-तैसे नहीं परंतु ज्ञानादि प्रयोजन से हो। शेष में तो काचबे के जैसे स्वयं के हाथ आंख आदि अंगोपांगों को स्वयं के शरीर में ही गोपन कर रखें। यानि सहजभावे है वैसे रखे ।।४८४।।
विकहं विणोयभासं, अंतरभासं अवक्कभासं च । जं जस्स अणिट्ठमपुच्छिओ, य भासं न भासिज्जा ॥४८५॥
वचन योग नियंत्रण में-देशकथादि विकथा का एक अक्षर भी बोलना नहीं (ज्ञानादि प्रयोजन बिना मात्र समय पसार करने के लिए विनोद वचन न बोलना, गुरु बोलते हैं तब बीच में न बोलना, जकार, मकार अरे आदि अवाक्य-अवचनीय शब्द न बोलना। वैसे ही जिस किसी को जो अप्रिय लगे वह न बोलना। बिना पूछे वाचालता से न बोलना ।।४८५।।
अणयट्ठियं मणो जस्स, झायइ बहुयाई अट्टमट्टाई । तं चिंतिअं च न लहइ, संचिणइ अ पायकम्माई ॥४८६॥ मनोयोग-नियंत्रण में जिसका मन चंचल है वह पाप संबंधी अनेक
श्री उपदेशमाला
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