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करता है। अतः कर्म यह मेघ-बादल जैसा है। इंद्रियादि से वास्तविक सुख नहीं है। विषयसुख दुःख-प्रतिकार रूप होने से खाज खनने जैसा है परंतु महा अरति निवारण के कारण जीव को सुख का भ्रम होता है उससे अविवेकी जीव ऐसे सुख को बढ़ाना चाहता है ।।४६०।। .
परपरिवायविसाला, अणेगकंदप्पविसयभोगेहिं संसाररत्था जीवा, अरइविणोअं करतेवं ॥४६१॥
दूसरे के अवर्णवाद में विशेष प्रवर्त्त संसारी जीव अनेक प्रकार के कंदर्प-परिहास वचन, हास्य वचन बोलकर शब्दादि विषयों का उपभोगकर मूढ़ता से अरति को हटाने का ही करते हैं परंतु अरति हटती नहीं परंतु वह अरति बार-बार जागृत होती रहती है। यहाँ पर निंदा यह द्वेष का कार्य, विषय-भोग यह राग का कार्य और सकर्मकता यह रागद्वेष का कार्य दर्शाया. विषय-भोग के अभ्यास से इंद्रियों में कुशलता रहती हैं ऐसा आभास होता. है परंतु अरति-तृष्णादि आत्म रोगों की वृद्धि होती है ।।४६१।। . . .
आरंभपायनिरया, लोइयरिसिणो तहा कुलिंगी य । दुहओ चुक्का नवरं, जीवंति दरिद्दजियलोयं ॥४६२॥ .
और मूढ़ता कैसी कि आरंभ-स्नानादि में जीव हिंसा और पाकधान्यादि से यज्ञ के चरु आदि का निर्माण या रसोइ इन दोनों में आसक्त लौकिक ऋषि स्वबुद्धि से मायारहित तापस और 'कलिंगी' =मायावी बौद्ध साधु आदि गृहस्थपना और साधुपना दोनों से रहित बिचारे जीते हैं वे दारिद्र्य जीवलोक-दरिद्रता के समान दैन्यवृत्ति से जीविका चलाने वाले होते हैं (साधुवेष में गृहस्थ जैसी चेष्टा के लक्षण से गृहस्थपना नहीं, हिंसादि में प्रवृत्त होने से साधुपना भी नहीं) ।।४६२।। .
सव्यो न हिंसियव्यो, जह महीपालो तहा उदयपालो । . न य अभयदाणवइणा, जणोवमाणेण होयव्यं ॥४६३॥
तब मोह मुक्त जीव यह देखते हैं कि किसी जीव की हिंसा न करनी, किन्तु महीपाल-राजा वैसे ही उदकपाल रंक दोनों समान गिनने योग्य है अपमान-तिरस्कार के योग्य नहीं है। अभयदान के स्वामी को अभयदानव्रती को सामान्य जन के जैसा नहीं होना चाहिए। [अविवेकी लौकिक धर्मवाले कहते है कि "अग्निलगाने वाला, झहर देनेवाला, शस्त्र चलानेवाला, धनचोर, पुत्रचोर और स्त्रीचोर इन छ आततायीयों को और वेदान्त पारगामी की हत्या करने वाले को मार डालने चाहिए। उसमें पाप नहीं है। जो ऐसा कहते है कि
श्री उपदेशमाला
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