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अयोग्य जीव अच्छी वस्तु को पाकर भी भटकता है।हम लोग आराधना करने के बाद भी आराधकभाव जीवंत न बनाकर रखें तो भटकना पड़ेगा। श्रीनंदनराजर्षि ने अनादि संस्कारों के सामने कड़ी नजर रखकर काया पर कठोर बने, कर्म पर क्रूर बने और जीवमात्र पर कारुणिक बने । जिसके परिणाम से प्राप्त करने योग्य को प्राप्त करना ऐसी अद्भुत भूमिका तैयार हो गयी। इनकी जीवन आराधना और अन्तिम आराधना शास्त्र के पन्नों पर वर्णित है।वे हमसब के लिये आदर्श रूप हैं । कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य भगवंतने त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्र में जिन श्लोकों को रखे है उसे कण्ठस्थ करके बारंबार मन्थन करने जैसे है।
संयमसाधक श्रीनंदन राजर्षि ।
आज्ञा: प्रभुजी की या मोह की ? श्रीनंदनराजर्षि एक लाख वर्ष का निर्मल चारित्र पालनकर, पच्चीसलाख वर्ष के आयुष्य के अन्त में दसवें प्राणत देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं, निर्मल सम्यक्त्व और वैराग्य की परिणति के बल से दैवी सुखों में विरक्त रहकर शाश्वततीर्थों की भक्ति, श्रीतीर्थंकरदेवों के कल्याणकों का