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________________ गोशाला आशापूर्वक स्वीकार करता है। अनेक उपायों, कथनों और मन के अनुकूल वचनों से सकडालपुत्र को विचलित करने का प्रयत्न करता है। परन्तु असफलता मिलने के कारण वह खिन्न होकर पोलासपुर नगर से अन्यत्र प्रस्थान कर जाता है। समकित और मिथ्यात्व का यह झगड़ा समझ में न आने योग्य तथा महत्त्वपूर्ण है। विवेकी पुरुष ही इसके मर्म को समझ सकता है।मात्र समाधानों में विश्वास करनेवालों को तो यह गजग्राह जैसा लगता है, इसमें कोई आश्चर्य नहीं । एकता-एकता की धुन में विश्वास करनेवालों को जो परिस्थिति दिखाई दे रही है, उसमें डूबनेवालों में से खोना किसे हैं और पाना किसे है, यह शान्तचित्त से विचार करने योग्य है। . दैवी उपसर्ग प्रभुवचन के प्रति श्रद्धा, उससे उत्पन्न निर्मल विवेक और श्रावकोचित आचार परायणता से सकडालपुत्र ने चौदह वर्षों तक आत्मा भावित की, पन्द्रहवें वर्ष में श्रावक प्रतिमा की साधना प्रारम्भ की । एक बार जब वे ध्यामग्न थे, तो उसके सामने देव प्रगट हुआ । मिथ्यात्व के क्षयोपशम से गोशाला की प्ररूपणा के उपसर्गों को सहन कर उन पर विजय प्राप्त करनेवाले उस महानुभाव को अविरति के उदय के कारण दैवी उपसर्ग में अक्षुब्धरहना कठिन हो गया। तीक्ष्ण तलवार लेकर विकराल रूप में भयंकर आवाज में जो कुछ कहा, उसीके अनुसार आचरण करते हुए तीनों पुत्रों के नौ-नौ टुकड़े कर उसके रक्त-मांसादि का छिड़काव आदि सारे उपसर्ग किये । परन्तु वह अडिग रहा । लेकिन जब धर्म में सहायक और धर्म को ही सर्वस्व माननेवाली धर्मानुरागिनी और सुख-दुःख सहभागिनी पत्नी अग्निमित्रा के लिए जब देव ने वैसा ही करने की बार-बार धमकी दी तो क्षुब्धहोकर उसका निग्रह करने का निर्णय लेकर सकडालपुत्र उसकी ओर दौड़ा।परन्तु घर का स्तम्भ हाथ में आने पर वह अपने-आप पर झल्ला उठा। धर्मपत्री की गुणसमृद्धि सूत्रकार महर्षि ने यहाँ जो सकडालपुत्र की धर्मपत्नी अग्निमित्रा के लिए जिन विशेषणों का प्रयोग किया है, वह मात्र वागाडम्बर नहीं बल्कि यथार्थ है। 'पतिदेवो भव' की आर्यावर्त की मान्यताएँ उसका मूल है। ....प्रभुवीर के दश श्रावक
SR No.002240
Book TitlePrabhu Veer ke Dash Shravak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreyansprabhsuri
PublisherSmruti Mandir Prakashan
Publication Year2008
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size21 MB
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