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आज यदि इतने मत प्रचलित हैं, तो इसमें क्या आश्चर्य है ? इस काल में धर्मश्रद्धा करना और टिकाए रखना एक बहुत बड़ा आश्चर्य कहा जा सकता है। अतः कहा गया है कि “धर्मे धी: भाविनी यस्य, सफलं तस्य जीवितम् ॥"
गोशालामत : नियति श्री वीरप्रभु के छद्मस्थ काल में प्रभु को गुरु के रूप में स्वीकार कर, तेजोलेश्या की विधिप्रभु के पास से जानकर, अष्टांगनिमित्त के बल पर सर्वज्ञ के रूप में प्रसिद्ध गोशाला एक बहुत बड़ी समस्या था । उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषार्थ और पराक्रम की आवश्यकता नहीं है, सारे भाव नियत हैं। जो होना है, वह पहले ही निश्चित है। ऐसी नियति उसने स्वीकार की, और उसीका प्रचार करता था । समर्थ धर्म प्रचारकों में उसका नाम था । वह विशाल भक्तसमुदाय से सम्पन्न था।सुना हैन कि उसके ग्यारहलाख भक्त थे?.
कुम्भकार सक्रडालपुत्र पोलासपुर में धनाढ्य सकडालपुत्र एक प्रसिद्ध व्यक्ति थी। . गोशालामत का उत्तम ज्ञाता था।समझपूर्वक उसने स्वीकार किया था।
अपने जिज्ञासा के सन्तोष से स्पष्ट मान्यता को धारण किया था। निश्चित रूप से आत्मसात् करनेवाला और अनुरागी था।गोशाला का मत ही सारभूत . और परमार्थरूप है यह उसकी रग-रग में समाया हुआ था। वह कोई सामान्य मनुष्य नहीं था।
दस हजार गायों का गोकुल, तीन करोड़,स्वर्णमुद्राएँ, घड़ा आदि के निर्माण की पाँच सौ कर्मशाला थी, जिसमें हजारों लोग वेतन आदि लेकर काम करते थे और पोलासपुर नगर के राजमार्ग पर प्रतिदिन बर्तनों की बिक्री कर जीवन निर्वाह करनेवाले हजारों सवैतनिक सेवक थे। पाँच सौ दुकानों में उसके द्वारा तैयार किए गए माल की बिक्री होती थी। ____ यह वर्णन उसकी सम्पन्नता, व्यापारियों में अग्रसरता और स्वीकृत धर्म के प्रति निष्ठा को स्पष्ट करता है। इसके अतिरिक्त वह बुद्धिमान और होशियार भी था।
देवसूचन : प्रभु का पदार्पण इतने बड़े व्यवसाय के बीच भी तत्वज्ञ के रूप में उसकी धर्मपरायणता प्रसिद्ध थी। एक बार वह अशोकवनिका में उपासना कर रहा था। तभी एक
प्रभुवीर के दश श्रावक