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काशी देश की वाराणसी नगरी में जितशत्रु नरनाथ की निगाह में नामनापात्र गाथापति चूलनीपिता का जीवन भी अद्भुत है। ऋद्धिसम्पन्न और किसी से कहीं भी पराजय नहीं प्राप्त करनेवाले उस महानुबाव के पास पूर्व के दो सद्गृहस्थों से भी अधिक सम्पत्ति है । इसी प्रकार दस हजार गायों के आठ गोकुल भी है। परिवार में पति परायणा शीलवती श्यामा नामक भार्या है। जबकि ऋद्धिसम्पन्नता या अनुकूल परिवार ही मात्र सदृहस्थ की पहचान नहीं है । बल्कि गुणसमृद्धि उसके गृहस्थजीवन को प्रकाशित कर रही है। धर्म प्राप्त करने के पूर्व भी उसका नीतिसम्पन्न जीवन, व्यक्तित्व का निखार कर सका था । किसी राजा की अदा से सुशोभित उसका व्यक्तित्व गौरवपूर्ण गुणों से निखर गया था।
धर्मप्राप्ति और परीक्षा ग्रामानुग्राम विहार करते हुए प्रभुजी वाराणसी में पधारते हैं। प्रभु की वाणी के श्रवण से धर्म की प्राप्ति होती है।वह श्रावकधर्म को स्वीकार करते है।
चौदह वर्षों तक व्रतों का विधिपूर्वक पालन करते हुए, ब्रह्मवत को स्वीकार करते हुए पौषधशाला में प्रतिमा की साधना का प्रारम्भ किया।
पिशाचरूपधारी देव आया।उपसर्गों की एक शृंखला शुरु हो गई।
'तू यदि अपनी प्रतिज्ञा का त्याग नहीं करोगे तो तेरे ज्येष्ठ पुत्र को घर से लाकर तुम्हारे सामने ही उसकी हत्या करता हूँ।
उसके मांस को शूल में डालकर कड़ाहमें पकाता हूँ।
उसके रक्त और मांस का तेरे ऊपर छिड़काव करता हूँ, जिससे तू आर्त्तरौद्र ध्यानपूर्वक रोते-सिसकते हुए मरोगे।
इसलिए मेरा कहना मानो और यहढोंग छोड़ दो।'
इस प्रकार दो-तीन बार कहने पर भी श्रावक विचलित नहीं हुआ तो क्रमशः ज्येष्ठ पुत्र , फिर मँझले पुत्र और उसके बाद छोटे पुत्र को मारकर उसके रक्त और मांस का छिड़काव किये जाने पर भी वहधर्म-ध्यान में दृढ़ रहते है।
मानो परीक्षा अभी भी बाकी हो, अतः चौथी बार भी चूलनी पिता से कहता है : हे अप्रार्थित मृत्यु के प्रार्थक ! अब तेरे लिए अनेक कष्टों को सहन करनेवाली दुष्कर-दुष्करकारिका देव-गुरु की भांति पूज्या माता-भद्रा को उसी प्रकार तेरे समक्ष लाकर मार डालूँगा और उसके मांस-रुधिर का तेरे ऊपर
....प्रभुवीर के दश श्रावक
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