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इसमें गुण-व्रतों का स्वीकार भी आता है। शिक्षाव्रत का भी स्वीकार करते हुए बाद की प्रतिमाओं में जिस प्रकार सामायिक आदि की साधना आती है, वह यहाँ नहीं आती है। यह प्रतिमा दो महीने की है। ३.सामायिक प्रतिमा:__सम्यक्त्व और व्रतों के पालन के साथ-साथ सामायिक साधना की यहाँ प्रधानता होती है। तीन महीने तक निरतिचार रूप में विशेष प्रकार से त्रिकाल सामायिक साधना करनी पड़ती है । सतत शुभ अध्यवसाय में रहने हेतु प्रयत्नशील रहना पड़ता है। ४.पौषधप्रतिमा:
पर्व की तीनों प्रतिमाओं का अखण्ड रूप से पालन करते हुए अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावास्या को, जिसे चतुष्पी कहा जाता है, उन पर्वतिथियों के दिनों में चार महीने तक पौषधकी आराधना विशुद्ध रूप से करनी पड़ती है। . . . . ५.कायोत्सर्गप्रतिमा:
पाँच महीने तक शरीर की ममता से मुक्त होने के विशिष्ट प्रयास के रूप में काया का उत्सर्ग अर्थात् ध्यानमग्न रहकर देह-वस्त्र आदि की ममता से मुक्त होकर रात भर रहना पड़ता है और मन को आत्मचिन्तन में प्रवृत्त रखना पड़ता
६.बहाचर्य प्रतिमा:
जिसमें सात महीने के दीर्घकाल तक त्रिकरण योग से शुधब्रह्मचर्य का अखण्ड पालन अनिवार्य है। पूर्व की प्रतिमाओं की आराधना करते हुए यह प्रतिमा करते समय औषधादि की आवश्यकता के अनुसार सचित्त पदार्थों का उपयोग सर्वथा त्याज्य होता नहीं है। ७.सचिलआहारवर्जन प्रतिमा:
सचित्त आहार का अब सर्वथा त्याग होने के कारण पूर्व अभिग्रहों का यथावत् पालन करते हुए औषधादि हेतु भी सचित्त वस्तुओं का उपयोग वर्ग्य रहता है। फिर भी अभी स्वयं आरम्भवृत्ति का त्याग स्वीकार नहीं किया होता है ।इस प्रतिमा का काल सात महीने का है।
८.स्वयं आरम्भवर्जन प्रतिमा:. संसार की प्रवृत्ति आरम्भरूप है, अतः संसार ही आरम्भरूप है। .
प्रभुवीर के दश श्रावक..
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