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________________ पाँच कर्म, पाँच वाणिज्य आदि महाहिंसक प्रवृत्तियाँ आज नए-नए रूपों 1 में फैली रही हैं । अर्थ- काम की प्रबल वासना आज जिस प्रकार उफान पर है, वह देखने से इन पापों से बचना मुश्किल बनता जा रहा है। विवेकी श्रावकों को इसके प्रति जाग्रत होना चाहिए । प्रभुशासन कहता है कि साधु जगत में प्रथम कक्षा का जीव है तो श्रावक को दूसरे नम्बर पर रखा जा सकता है। पाँच महापापों का स्थूल रूप से किये त्याग को चमकाने के लिए गुणकारी गुणव्रतों का वो यथाशक्ति स्वीकार करता है। जिसमें दिशाओं में गमनागमन की मर्यादा और भोगोपभोग के साधनों की मर्यादा करता है । श्री आनन्द श्रावक ने इक्कीस प्रकार की मर्यादाएँ निश्चित की है और पन्द्रह कर्मादान का त्याग किया है। श्रावक जीवाजीवादिज्ञाता आर्त- रौद्र स्वरूप दुर्ध्यान, विकथा आदि प्रमाद, हिंसक शस्त्रादि का वितरण और पापप्रवृत्ति की प्रेरणारूप अनर्थदण्ड, अनावश्यक रूप से दण्डित करने के दोष से भी आत्मा को यथाशक्य बचा लेने की मर्यादा को स्वीकार किया है । इन तीन गुणव्रतों के साथ-साथ सामायिकदेशावगासिक - पौषध और अतिथि संविभाग ये चार शिक्षाव्रत, जिन्हें शास्त्रों सात शिक्षाव्रत भी कहा जाता है। ये सबी मिलकर बारह व्रत के रूप में जाने जाते हैं, उनका विधिपूर्वक स्वीकार किया है। प्रभु ने श्रावकों के लिए 'अहिगयजीवाजीवे' के रूप में एक विशेषण का प्रयोग किया है। जिसका अर्थ होता है कि ' श्रावंक जीव- अजीव आदि तत्त्व का ज्ञाता होता है ।' ऐसे ज्ञाता सुश्रावक को व्रतों में और सम्यक्त्व में अतिचारों-दोषों का परिहार करना चाहिए। जो जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता बनता है, वह स्वरूप प्राप्ति में विघ्नरूप दोषों का परिहार करने के लिए अवश्य प्रयत्नशील होगा। इसीलिए यह विशेषण बहुत महत्त्वपूर्ण है । ज्ञान सच्चे वैराग्य का कारण है और वैराग्य त्याग की आधारशिला है । व्रत हमेशा सम्यक्त्व सहित ही स्वीकार किए जाते हैं । अतः सम्यक्त्व के स्वरूप के साथ-साथ उसके अतिचारों और व्रतों के भी अतिचार प्रभु ने आनन्द को बतलाए । और आनन्द ने भी हर्षपूर्वक प्रभुजी के श्रीमुख से सम्यक्त्व सहित व्रतों का स्वीकार किया और फिर प्रभु को वन्दना कर अपने घर पहुँचा । - प्रभुवीर के दश श्रावक १५
SR No.002240
Book TitlePrabhu Veer ke Dash Shravak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreyansprabhsuri
PublisherSmruti Mandir Prakashan
Publication Year2008
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size21 MB
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