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इसी प्रकार चतुष्पद प्राणी के विषय में गाय आदि का भी प्रमाण किया । अब नई किसी भी प्रकार की वृद्धि नहीं करना, यह भी संकल्प किया ।
पाप-महापाप की मर्यादा पंचम अणुव्रत को स्वीकार करना बहुत ही कठिन है । इच्छाएँ आकाश के समान अन्तहीन हैं । पापभीरुता के बिना उन्हें नियन्त्रित करना सम्भव नहीं है । स्वर्गीय परम गुरुदेवश्री (विजयरामचन्द्र सूरीश्वरजी महाराजा) कहा करते थे कि चौथा पाप यदि पाप माना जाता है तो पाँचवाँ पाप महापाप है। उसका त्याग या मर्यादा करने में आनन्द श्रावक का वर्णन आगे देखते हैं ।
खेत-वस्तु- वास्तु के सम्बन्धमें उसकी मर्यादा यह है कि खेती योग्य भूमि, नित्य उपयोग की वस्तुएँ तथा रहने योग्य मकान आदि वस्तुओं का प्रमाण निश्चित किया । जिसमें पांच सौ हल प्रमाण भूमि, अर्थात् सौ बीघे जमीन बराबर एक हल जमीन माना जाता है, ऐसे पाँच सौ हल प्रमाण भूमि निर्धारित कर, यात्रा - प्रवास के लिए पाँच सौ बैलगाड़ी और माल लाने-ले जाने के लिए पाँच सौ से अधिक गाड़ी का त्याग किया ।
इक्कीस मर्यादाएँ
इस प्रकार प्रथम देशना के श्रवण के बाद पाँच महापापों का स्थूल से त्यागस्वरूप अणुव्रत ग्रहण करने के साथ-साथ वाहन आदि का नियन्त्रण कर दिशा - परिमाण भी निश्चित किया । ऐसा सूचिंत होता है । भोगोपभोग की विरति के व्रत में उसके द्वारा की गई मर्यादा वर्णनातीत है ।
(१) गंधकाषाय्य वस्त्र (सुगन्धित लाल वर्ण का ) के सिवाय स्नान के बाद का अंग पोंछने के वस्त्र (तौलिये) का त्याग ।
(२) जेठी मधु की हरी लकड़ी के सिवाय दातून का त्याग । (३) दूधझरते हुए आँवले के सिवाय अन्य फलों का त्याग । (४) शतपाक - सहस्रपाक के सिवाय अन्य मालिश तेल का त्याग ।
(५) आठ औष्ट्रिक ( घड़ा आदि के रूप में प्रसिद्ध माप के साधन विशेष ) घड़े से अधिक जल का खान के लिए त्याग ।
(६) गेहूँ आदि के सुगन्धित उबटन अंगशुद्धि के चूर्ण सिवाय का त्याग ।
. प्रभुवीर के दश श्रावक
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