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________________ 131 देवतामूर्ति-प्रकरणम् । the knees. Make a chakra (disc) to the right of the idol and show Sheshnag to the left, both very close to Narsingh. (84). Narsingh's arms are upraised, with the right arm holding a lotus and the left arm a macc of fine workmanship. Such should bc the portrayal by the proficient. (85). जलशायी जलमध्यंगत: कार्य: शेष: पन्नगदर्शनः। फणाम्बुजमहारत्न-दुर्निरीक्षशिरोधरः ॥८६ ॥ देवदेवस्तु कर्त्तव्यस्तत्र सुप्तश्चतुर्भुजः । एकपादोऽस्य कर्त्तव्यः शेषभोगांकसंस्थितः ॥८७ ॥ एको भुजस्तु कर्त्तव्यस्तस्य जानुप्रसारित: । कर्तव्यो नाभिदेशस्थस्तथा तस्यापरः करः ॥८८ ॥ तथैवान्यकर: कार्यों देवशत्रुशिरोधरः। सन्तानमञ्जरीधारी तथा चैवापरो भवेत् ॥८९॥ नाभिसरसि सम्भूते कमले तस्य यादवः । सर्वभूमिमयो देव: प्राक् कार्यस्तु पितामहः ॥ नाललग्नौ च कर्त्तव्यौ पद्मस्य मधुकैटभौ ॥९० ॥ पानी के मध्य में सर्प के आकार का शेषनाग बनावे। वह कठिनाई से देखने योग्य महारत्न को फण कमलरूप मस्तक धरने वाला है। इस शेषनाग के ऊपर देवाधिदेव सोते हुए बनाना, वह चार भुजा वाला है। वह एक पैर शेष के शरीर के गोद पर रखा हुआ है। एक भुजा जानु तक लम्बी करना, दूसरी भुजा नाभि प्रदेश पर रखी हुई बनाना। तीसरी भुजा देव-शत्रु के (दैत्य के) सिर पर रखी हुई करना और चौथी भुजा में सन्तान नाम के कल्पवृक्ष की मंजरी युक्त बनाना। उसके नाभि रूप सरोवर में ऊँचा कमल बनाना, उस कमल में यादव की मूर्ति करना। सर्वभूमिमय देव के पूर्व भाग में ब्रह्मा स्थापित करना, तथा
SR No.002234
Book TitleDevta Murti Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Bhagvandas Jain, Rima Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1999
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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