SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उववाइय सुत्तं सू० १२ जाते हैं, उसी प्रकार किसी भी क्षेत्र में जिन के प्रवेश करते ही महामारी, दुर्भिक्ष आदि अनिष्ट दूर हो जाते थे, लोकोत्तम–लोक के समस्त-प्राणियों में उत्तम, लोकनाथ-लोक के समस्त भव्य आत्माओं के स्वामी, अर्थात् उन्हें सन्मार्ग प्राप्त कराकर उनका योग-क्षेम साधने वाले, लोक का कल्याण करने वाले, ज्ञान रूपी दीप के द्वारा लोक का अज्ञान-अन्धकार दूर करने वाले या लोकप्रवाह के प्रतिकूलगामी-अध्यात्म मार्ग पर गतिशील, लोक-अलोक, जीव अजीव, पुण्य-पाप आदि का स्वरूप प्रकाशित करने वाले, या लोक में धर्म का उद्योत फैलाने वाले, समस्त प्राणियों के लिये अभयप्रद, आन्तरिक-नेत्र-सद्ज्ञान देने वाले, सम्यग्दर्शनं, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप साधना मार्ग के उद्बोधक, मुमुक्षु और जिज्ञासु प्राणियों के लिये आश्रयंभूत, आध्यात्मिक जीवन के संबल, सम्यक् बोध देने वाले, सम्यक चारित्र रूप धर्म के दाता धार्मिक-देशना देनेवाले, धर्म नायक, धर्म रूपी रथ के संचालक, चार अन्त अर्थात् चार सीमा युक्त पृथ्वी के अधिपति के सदृश धार्मिक जगत् के चक्रवर्ती, दीपक के समान समस्त वस्तुओं के प्रकाशक या संसार-समुद्र में भटकते जनों के लिये द्वीप के समान आश्रय स्थान, कर्म कथित भव्य आत्माओं के रक्षक, आश्रय गति और प्रतिष्ठा स्वरूप, आवरणरहित उत्तम ज्ञान दर्शन के धारक, अज्ञान आदि आवरण रूप छद्म से अतीत, राग ष आदि के विजेता, राग-द्वेष आदि भावात्मक सम्बन्धों के ज्ञाता अथवा राग-द्वेष आदि को जीतने का मार्ग बताने वाले, संसार-समुद्र को पार कर जाने वाले, दूसरों को संसार-सागर से पार उतारने वाले, जानने योग्य का बोध प्राप्त किये हुए, अन्य जनों के लिये बोधप्रद, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, कल्याणमय, स्थिर, निरुपद्रव, अन्तरहित, क्षयरहित, बाधा रहित, जहाँ से फिर जन्म-मृत्य रूप संसार में आगमन नहीं होता, ऐसी सिद्धावस्था को प्राप्त किये हुए सिद्धों को नमस्कार हो। “आदिकर-अपने युग में श्रुत धर्म के प्रथम प्रवर्तक, तीर्थ कर-श्रमणश्रमणी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध धर्म-संघ-धर्म तीर्थ के संस्थापक-कर्ता, सिद्धावस्था को पाने के इच्छुक-समुद्यत, मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, श्रमण भगवान महावीर को मेरा नमस्कार हो।" "I bow to the conqueror of inder foes, the revered Lord of all the munificence, the founder of religion, the founder of the fourfold order, self-enlightened, the best among men, a dion among men, a white lotus among men, an elephant among
SR No.002229
Book TitleUvavaia Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rameshmuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy