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उववाइय सुत्तं सू० ४३
Mahāvīra : No, this is not correct.
से णं पुवामेव संण्णिस्स पंचिंदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्णजोगस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीणं पढमं मणजोगं णिरुंभइ । तयाणंतरं च णं विदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्णजोगस हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीणं बिइयं वइजोगं णिरुंभइ । तयाणंतरं च णं सुहुमस्स पणगजीवस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णजोगस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीणं तईयं कायजोगं णिरंभइ ।
वे सब से पहले पर्याप्तक–आहार, शरीर, इन्द्रिय आदि 'पर्याप्ति युक्त, संज्ञी-समनस्क, पंचेन्द्रिय-श्रोत्र, चक्षु, घाण आदि इन्द्रियों से युक्त जीव के जघन्य मनोयोग के नीचे के स्तर से असंख्यात गुणहीन प्रथम मनोयोग का निरोध करते हैं। अर्थात् इतना मनोव्यापार उन के अवशेष रहता है। तत्पश्चात् पर्याप्तक द्वीन्द्रिय जीव के जघन्य वचन योग के नीचे के स्तर से भी असंख्यात गुणहीन द्वितीय वचन योग : का निरोध करते हैं। अति उस जीव की निम्नतम स्तरीय वाचिक
प्रवृत्ति की असंख्यातवें भाग जितनी वाचिक प्रवृत्ति रहती है, अवशेष का निरोध कर देते हैं। उस के बाद अपर्याप्त-आहार, शरीर, इन्द्रिय आदि पर्याप्तियों से रहित, सूक्ष्म पनक-नीलन-फूलन जीव के जघन्य योग के नीचे के स्तर से असंख्यात गुणहीन तृतीय काय योग का निरोध करते हैं। .
First of all, he cuts out all the activities of the mind to the 'smallest fraction of the minimum activity of a five-organ being 'with a mind and with full attainments. Next, he cuts out all the activities of the speech to the smallest fraction of the 'minimum activity of speech of a two-organ being with attainments. And after that he cuts out the activity of the body to the smallest fraction of the minimum activity of the minutest form of life without attainment.