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________________ उववाइय सुत्तं सू० ३५ 193 vows and seven educative practices of a pious house-holder. The rest of the people attending the congregation paid their homage and obeisance to Bhagavān Mahävira and submitted as follows ___ सुअक्खाए ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे एवं सुपण्णत्ते सुभासिए सुवीणीए सुभाविए अणुत्तरे ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे । धम्म णं आइक्खमाणा तुब्भे उवसमं आइक्खह । उवसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्खह । विवेगं आइक्खमाणा वेरमणं आइक्खह। वेरमणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह । णत्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तए । किमंग पुणं इत्तो उत्तरतरं? एवं वंदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूआ तमेव दिसं पडिगया ॥३५।। "हे भगवन् ! आप द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन-जिन शासन या प्राणी की अन्तर्वर्ती ग्रन्थियों को छुड़ाने वाला आत्मानुशासनमय उपदेश सुआख्यातसुन्दर रूप में कहा गया, सुप्रज्ञप्त-इसी प्रकार विशेषता युक्त या उत्तम रीति से समझाया गया, सुभाषित-हृदयस्पर्शी भाषा-शैली में प्रतिपादित किया गया, सुविनीत-शिष्यों में प्रशस्त रूप में विनियोजित-सहज रूप में अंगीकृत, सुभावित--उत्तम या सुष्ठ भावों से युक्त, अनुत्तर-सर्वोत्तम, निर्ग्रन्थ-प्रवचन-अरिहन्त-देशना · है। हे प्रभो! आपने धर्म की व्याख्या करते हुए उपशम-क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषाय-निरोध का विवेचन किया। आपने उपशम की व्याख्या करते हुए विवेक-बाह्य परिग्रह या आभ्यन्तर ग्रन्थियों के त्याग को समझाया। विवेक की व्याख्या करते हुए आपने विरमण--विरति-आत्म-स्वरूप में लौटने की प्रक्रिया की विवेचना की। विरमण की व्याख्या करते हुए आपने पाप कर्म न करने का निरूपण किया। दूसरा कोई श्रमण या ब्राह्मण नहीं है जो ऐसे धर्म का उपदेश कर सके। तो फिर इससे श्रेष्ठ धर्म के उपदेश की तो बात ही कहाँ ?” इस प्रकार कहकर वह परिषद् जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा की ओर लौट गई ॥३५॥ 13
SR No.002229
Book TitleUvavaia Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rameshmuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size20 MB
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