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Uvavaiya Suttam Sh. 34
समणोवासए समणोवासिआ वा विहरमाणे आणाइ आराहए भवति । ॥३४।।
अगार धर्म-श्रावक धर्म बारह प्रकार का बतलाया गया है जो इस प्रकार है : पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। पांच अणुव्रत इस प्रकार हैं: (१) स्थूल-प्राणातिपात विरमण-त्रस जीवों के प्राणों की संकल्पपूर्वक की जाने वाली हिंसा से निवत्त-विरत होना, (२) स्थूल मृषावाद विरमण-स्थूल मृषावाद से विरत होना, (३) स्थूल अदत्तादान विरमण-स्थूल अदत्तादान ( चोरी ) से विरत होना, (४) स्वदार संतोष-अपनी परिणीता पत्नी तक संतोष-मैथुन की सीमा, (५) इच्छा परिमाण। तीन गुणव्रत इस प्रकार हैं : (१) अनर्थ दण्ड विरमणआत्म-गुणों के लिये घातक या आत्मा के लिये अहितकर-निरर्थक प्रवृत्ति का परित्याग, (२) दिग्व्रत-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, अग्नि, नैर्ऋत्य, वायु, ईशान ऊर्ध्व और अध: इन दशों दिशाओं में जाने के सम्बन्ध में सीमाकरण अथवा मर्यादा करना, (३) उपभोगपरिभोग परिमाण-उपभोग--जिन्हें अनेक बार भोगा जा सके, ऐसी वस्तुएँ, जैसे वस्त्र आदि, तथा परिभोग-जिन्हें एक ही बार भोगा जा सके, ऐसी वस्तुएँ, जैसे भोजन आदि, इनका परिमाण--सीमाकरण। चार शिक्षाव्रत इस प्रकार हैं : (१) सामायिक-समत्वभाव या समता की सम्पूर्ण साधना के लिये नियत समय ( न्यूनतम एक मुहूर्त-अड़तालीस मिनट ) में किया जाने वाला · अभ्यास, (२) देशावकाशिक--नित्य प्रति अपनी प्रवृत्तियों में निवृत्ति भाव की अभिवृद्धि का अभ्यास, (३) पोषधोपवास-अध्यात्म साधना में अग्रसर होने के लिये आहार, अब्रह्मचर्य आदि का परित्याग, जिससे आत्मभाव का पोषण होता है, (४) अतिथि संविभाग--जिनके आने की कोई तिथि निश्चित नहीं है, ऐसे अनिमन्त्रित संयमी साधकों या साधर्मिक बन्धुओं को जीवनोपयोगी तथा संयमोपयोगी स्व-अधिकृत सामग्री का एक भाग समादरपूर्वक देना और अपने मन में ऐसी संविभाग की पवित्र भावना सदा बनाए रखना कि ऐसा पावन अवसर प्राप्त होता रहे । तितिक्षापूर्वक अन्तिम मरण रूप संलेखना-तपश्चर्याआमरण अनशन की आराधना के द्वारा काया को कृश बनाने वाली विशिष्ट क्रिया, शरीर-त्याग, श्रावक की इस जीवन की साधना का पर्यवसान