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________________ प्रत्याख्यान : अमृतपान किसी जिज्ञासुबन्धु ने परमतारक देवाधिदेव श्रद्धेय श्री वर्धमानस्वामी से पूछा कि पच्चक्खाणेणं भंते! जीवे किं जणयइ अर्थात् भगवन्! प्रत्याख्यान से जीव कौनसा लाभ अर्जित करता है। प्रत्युत्तर में प्रभुने कहा कि पच्चक्खाणेणं आसवदाराई निरंभइ अर्थात् प्रत्याख्यान से जीव नये बंध होने वाले पापकर्मों को रोकने का सामर्थ्य हासिल करता है और इसके साथ ही पूर्वोपार्जित कर्मों से मुक्त भी होता है। प्रत्याख्यान को मंगल ही नही महामंगल का दर्जा प्राप्त है। इसके माध्यम से अमंगल (विघ्नों) का नाश होता है। मानव इसके द्वारा मंगल से महामंगल की ओर प्रयाण करता है। शास्त्र और परंपरा साक्षी है कि आयंबिल के प्रत्याख्यान से द्वारिका नगरी का दहन द्वैपायन ऋषि नहीं कर सके थे । प्रत्याख्यान जैन आध्यात्मिक साधना क्षेत्र का एक अतिश्रेष्ठ निधान है। जिसकी तुलना किसी अन्य पदार्थो से नहीं हो सकती! एक नवकारसी जितने अल्पकालीन प्रत्याख्यान से अप्रतिम राग-द्वेष का शमन होता है | आत्मा में व्याप्त राग-द्वेष नाश होते ही साधक आत्मस्वास्थ्य को.प्राप्त करता है। मानस शास्त्र का नियम है कि इंसान जितने पदार्थों के सम्पर्क में आता है, उतना ही वह मन से संतप्त होता है । जब कि प्रत्याख्यान में साधक अल्पकालीन या बहुकालीन पदार्थों के सम्पर्क से मुक्त होकर मानस-स्वास्थ्य को भी प्राप्त करता है। साथ ही साथ प्रत्याख्यान से आहार का भी संतुलन होने के कारण देह-स्वास्थ्य भी प्राप्त करता है | इस प्रकार प्रत्याख्यान से पावन बना साधक आत्म-स्वास्थ्य, मानस-स्वास्थ्य और देहस्वास्थ्य के त्रिवेणी संगम का अमृतपान करके अजरामर पद को निश्चितरूपेण प्राप्त करता है। पू. गुरुवर्यश्री का प्रस्तुत प्रयत्न आराधक आत्माओं के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है । & मुनि अमरपद्मसागर
SR No.002214
Book TitlePacchkhan Margdarshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArvindsagar
PublisherShantidham Jain Tirth
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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