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________________ ४० श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध जान ले कि इस ग्राम या इस राजधानी में संखडि है, तो वह उस ग्राम या राजधानी में होने वाली संखडि में संखडि की प्रतिज्ञा से जाने का विचार न करे। क्योंकि भगवान कहते हैं की यह अशुभ कर्म के आने का मार्ग है, ऐसी हीन संखडि में जाने से निम्न लिखित दोषों के उत्पन्न होने की संभावना रहती है। यथा- जहां थोड़े लोगों के लिए भोजन बनाया हो और परिव्राजक तथा चरकादि भिखारी गण अधिक आ गए हों तो उस में प्रवेश करते हुए, पैर से पैर पर आक्रमण होगा, हाथ से हाथ का संचालन होगा, पात्र से पात्र का संघर्षण होगा, एवं सिर से सिर और शरीर से शरीर का संघटन होगा, ऐसा होने पर दण्ड से या मुट्ठी से या पत्थर आदि से एक-दूसरे पर प्रहार का होना भी सम्भव है। इसके अतिरिक्त, वे एक दूसरे पर सचित्त जल या सचित्त मिट्टी आदि फेंक सकते हैं। और वहां याचकों की अधिकता के कारण साधु को अनैषणीय आहार का भी उपयोग करना होगा तथा अन्य को दिए जाने वाले आहार को मध्य में ही ग्रहण करना होगा। इस तरह उस में जाने से अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। इसलिए संयमशील निर्ग्रन्थ उक्त प्रकार की अर्थात् परिव्राजकादि . . से आकीर्ण तथा हीन संखडि में संखडि की प्रतिज्ञा से जाने का विचार न करे। हिन्दी विवेचन- संखडि के प्रकरण को समाप्त करते हुए प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि संखडि में जाने से पारस्परिक संघर्ष भी हो सकता है। क्योंकि संखडि में विभिन्न मत एवं पन्थों के भिक्षु एकत्रित होते हैं। अतः अधिक भीड़ में जाने से परस्पर एक-दूसरे के पैर से पैर कुचला जाएगा इसी तरह परस्पर हाथों, शरीर एवं मस्तक का स्पर्श भी होगा आर एक-दूसरे से पहले भिक्षा प्राप्त करने के लिए धक्का-मुक्की भी हो सकती है। और भिक्षु या मांगने वाले अधिक हो जाएं और आहार कम हो जाए तो उसे पाने के लिए परस्पर वाक् युद्ध एवं मुष्टि तथा दण्ड आदि का प्रहार भी हो सकता है। इस तरह संखडि संयम की घातक है। क्योंकि वहां आहार शुद्ध नहीं मिलता, श्रद्धा में विपरीतता आने की संभावना है, सरस आहार अधिक खाने से संक्रामक रोग भी हो सकता है और संघर्ष एवं कलह उत्पन्न होने की संभावना है। इसलिए साधु को यह ज्ञात हो जाए कि अमुक गांव या नगर आदि में संखडि है तो उसे उस ओर आहार आदि को नहीं जाना चाहिए। ____संखडि दो तरह की होती है- १-आकीर्ण और २-अवम। परिव्राजक, चरक आदि भिक्षुओं से व्याप्त संखडि को आकीर्ण और जिसमें भोजन थोड़ा बना हो और भिक्षु अधिक आ गए हों तो अवम संखडि कहलाती है। मूलम्- से भिक्खू वा जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा ४ एसणिज्जे सिया अणेसणिज्जे सिया वितिगिंछसमावन्नेण अप्पाणेण असमाहडाए लेसाए तहप्पगारं असणं वा ४ लाभे संते नो पडिग्गाहिज्जा॥१८॥ छाया- स भिक्षुर्वा यावत् (गृहपतिकुलं प्रविष्टः) सन् पुनर्जानीयात्- अशनं वा ४ . एषणीयं स्यात् अनेषणीयं स्यात्, विचिकित्सासमापन्नेनात्मना असमाहृतया-अशुद्ध्या लेश्यया १ आचारांग सूत्र, २, १, ३, १७ वृत्ति।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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