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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
कपट का सहारा भी नहीं लेना चाहिए। जैसे- किसी मुनि को यह मालूम हुआ कि अमुक स्थान पर संखड है, उस समय वह भिक्षु संखडि में जाने की अभिलाषा से उस ओर आहार को जाता है। वह अपने मन में सोचता है कि जब मैं उस ओर के घरों में गोचरी करूंगा तो संखडि वाले मुझे देखकर आहार की विनती करेंगे और इस तरह मुझे सरस आहार प्राप्त होगा। इस भावना से भी साधु को संखडि में नहीं जाना चाहिए। इस तरह छल-कपट करने से दूसरा एवं तीसरा महाव्रत भंग हो जाता है और मन सरस आहार की अभिलाषा बनी रहने के कारण वह अन्य घरों से निर्दोष एवं एषणीय आहार भी ग्रहण नहीं कर सकेगा। अतः भिक्षु को आहार के बहाने संखडि की ओर नहीं जाना चाहिए। परन्तु, संखडि को छोड़कर अन्य घरों से निर्दोष एवं एषणीय आहार ग्रहण करते हुए संयम साधना में संलग्न रहना चाहिए।
प्रस्तुत सूत्र में 'सामुदाणियं, एसियं, वेसियं' इन तीन पदों का प्रयोग किया है। सामुदानिक गोचरी का अर्थ है-छोटे-बड़े या गरीब-अमीर के भेद को छोड़कर अनिन्दनीय कुलों से निर्दोष आहार.. को ग्रहण करना । एषणीय का अर्थ है- आधाकर्म आदि १६ दोषों से रहित आहार ग्रहण करना और वौषिक का अर्थ - धात्री आदि १६ दोषों से रहित आहार स्वीकार करे। वैषिक शब्द वेसिय', व्यषित और वेष का भी बोधक है।
संखडि के विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - से भिक्खू वा २ से जं पुण जाणिज्जा ग्रामं वा जाव रायहाणिं वा इमंसि खलु गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा संखंडी सिया तंपि य गामं वा जाव रायहाणिं वा संखडिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए । केवली बूया आयाणमेयं, आइन्नाऽवमा णं संखडिं अणुपविस्समाणस्स पाएण वा पाए अक्कंतपुव्वे भवइ, हत्थेण वा हत्थे संचालियपुव्वे भवइ, पाएण वा पाए आवडियपुव्वे भवइ, सीसेण वा सीसे संघट्टियपुव्वे भवइ, कारण वा काए संखोभियपुव्वे भवइ, दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलुणा वा कवाण वा अभिहयपुव्वे वा भवइ, सीओदएण वा उस्सित्तपुव्वे भवइ, रयसा वा परिघासियपुव्वे भवइ, अणेसणिज्जे वा परिभुत्तपुव्वे भवइ, अन्नेसिं वा दिज्जमाणे पडिग्गाहियपुव्वे भवइ, तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगारं आइन्नावमाणं संखडिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणा ॥ १७ ॥
छाया - स भिक्षुर्वा तद् यत् पुनः जानीयात् ग्रामे वा यावत् राजधान्यामस्मिन् खलु ग्रामे वा यावद् राजधान्यां वा संखडिः स्यात् तमपि च ग्रामे वा यावद् राजधान्यां वा संखडिं
करी लीज ।
१ " वेसिय' त्रि० (वैषिक ) वेष- बाह्य लिंग मात्र थी प्राप्त थयेलुं । 'वेसिय' त्रि (व्येषित) विशेष एषणा थी शुद्ध