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प्रथम अध्ययन, उद्देशक २
३३ को व्यवस्थित बनाएगा। क्योंकि वह शय्या अकिंचन भिक्षु के लिए है। अतः वह यत्नशील निर्ग्रन्थ उक्त प्रकार की पूर्व संखडी तथा पश्चात् संखडी को संखडी की प्रतिज्ञा से जाने के लिए मन में संकल्प न करे। यह निश्चय ही साधु वा साध्वी की सामग्रता अर्थात् भिक्षु भाव की सम्पूर्णता है, ऐसा मैं कहता हूँ।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र के पूर्व भाग में हम देख चुके हैं कि संखडी में आहार को जानने से निर्दोष आहार मिलना कठिन है। और इस सूत्र के उत्तर भाग में यह बताया गया है कि संखडी में जाने से और भी अधिक दोष लग सकते हैं। यदि किसी श्रद्धानिष्ठ व्यक्ति को यह पता लग जाए कि साधु इस ओर आहार के लिए आ रहा है, तो वह उसके लिए शय्या आदि को ठीक करने का प्रयत्न करेगा, स्थान को ठहरने के योग्य बनाने के लिए इधर-उधर पड़े हुए घास-फूस को काटेगा, पानी आदि से धोएगा और दरवाजे को छोटा-बड़ा बनाएगा। इस दृष्टि से भी संखडी के स्थान में साधु को आहार के लिए जाने का निषेध किया गया है।
__'संखडी' भी पूर्व और पश्चात् के भेद से दो प्रकार की होती है। विवाह आदि के मांगलिक कार्यों के समय विवाह सम्पन्न होने से पूर्व की जाने वाली संखडी को पूर्व सखंडी कहते हैं और मरे हुए व्यक्ति के पीछे मृत भोज को पश्चात् संखडी कहते हैं। क्योंकि मृतभोज व्यक्ति के मरने के बाद ही किया जाता है। . प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'असंजए' पद का अर्थ वृत्तिकार ने श्रावक या अन्य भद्र-पुरुष किया है। इसका आशय यह है कि उपाश्रय के साथ श्रावक का सम्बन्ध होने के कारण श्रावक अर्थ संगत बैठता है। परन्तु विवेकवान एवं तत्त्वज्ञ श्रावक साधु के लिए घास-फूस काटकर आरम्भ नहीं करता। इससे ऐसा ज्ञात होता है कि साधुचर्या से अनभिज्ञ श्रावक या श्रद्धानिष्ठ भक्त हो सकता है।
'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझें।
॥ द्वितीय उद्देशक समाप्त॥