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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक २ ३१ है तो वह आधाकर्मिक, औद्देशिक, मिश्रजात, क्रीतकृत, उधार लिया हुआ, छीना हुआ, दूसरे की बिना आज्ञा लिया हुआ और सन्मुख लाया हुआ खाता है। तात्पर्य यह है कि यदि साधु वहां जाएगा तो संभव है कि उसे सदोष आहार खाना पड़े । हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को सरस एवं स्वादिष्ट पदार्थ प्राप्त करने की अभिलाषा से संखडी- बड़े जीमनवार या प्रीतिभोज में भिक्षा को नहीं जाना चाहिए। उस स्थान ही नहीं अपितु जहाँ पर प्रीतिभोज आदि हो रहा हो उस दिशा में भी आहार को नहीं जाना चाहिए। इससे साधु की आहार वृत्ति की कठोरता एवं स्वाद पर विजय की बात सहज ही समझ में आ जाती है। ऐसे आहार को भगवान ने आधाकर्म आदि दोषों से युक्त बताया है। इससे स्पष्ट है कि साधु यदि ऐसे प्रसंग पर वहाँ आहार के लिए जाए तो अप्रासुक एवं अनेषणीय आहार लेना होगा। क्योंकि अत्यधिक आरम्भसमारम्भ होने से वह सचित्त आदि पदार्थों के स्पर्श का ध्यान नहीं रख सकता, देने में भी अविधि हो सकती है और साधु को उस दिशा में आता हुआ देखकर कुछ विशिष्ट पदार्थ भी तैयार किए जा सकते हैं या उन्हें साधु के लिए इधर-उधर रखा जा सकता है। अतः साधु को ऐसे प्रसंग पर आहार को नहीं जाना चाहिए । 'संखडि' शब्द का अर्थ होता है- 'संखण्ड्यन्ते - विराध्यन्ते प्राणिनो यत्र सा संखडि : ' अर्थात् जहां पर अनेक जीवों के प्राणों का नाश करके भोजन तैयार किया जाता है, उसे 'संखडि' कहते हैं। वर्तमान में इसे भोजनशाला कहते हैं। इसका गूढ़ अर्थ महोत्सव एवं विवाह आदि के समय किया जाने वाला सामूहिक जीमनवार से लिया जाता है। ऐसे स्थानों पर शुद्ध, निर्दोष, एषणीय एवं सात्विक आहार उपलब्ध होना कठिन है, इसलिए साधु के लिए वहां आहार को जाने का निषेध किया गया है। उस समय गाँव एवं नगरों में तो संखडी होती ही थी। इसके अतिरिक्त खेट - धूल के कोट वाले स्थान, कुत्सित नगर, मडंब- जिस गाँव के बाद ५ मील पर गाँव बसे हुए हों, पत्तन- जहाँ पर सब दिशाओं से आकर माल बिकता हो (व्यापारिक मण्डी) आकर - जहाँ ताम्बे, लोहे आदि की खान हों, द्रोणमुख - जहाँ जल और स्थल प्रदेश का मेल होता हो। नैगम- व्यापारिक बस्ती, आश्रम, सन्निवेशसराय (धर्मशाला) छावनी आदि। ये स्थान ऐतिहासिक गवेषणा की दृष्टि से बड़ा महत्त्व रखते हैं । प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ' आयाणमेयं' का अर्थ है- कर्म बन्ध का हेतु । कुछ प्रतियों में ' आयाणमेयं' के स्थान पर 'आययणमेयं' ऐसा पाठ भी मिलता है। इसका अर्थ है- यह कार्य दोषों का स्थान है, यहां इतना स्मरण रखना चाहिए कि यह वर्णन उत्कृष्ट पक्ष को लेकर किया गया है, जघन्य - सामान्य पक्ष को लेकर नहीं । संखडी में जाने से कौन से दोष लग सकते हैं, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम् - असंजए भिक्खुपडियाए खुड्डियदुवारियाओ महल्लियदुवारियाओ कुज्जा, महल्लियदुवारियाओ खुड्डियदुवारियाओ कुज्जा, समाओ
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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