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प्रथम अध्ययन, उद्देशक २
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पदार्थ- से-वह। भिक्खू वा-भिक्षु-साधु। भिक्खुणी वा-अथवा साध्वी। गाहावइकुलंगृहपति के कुल में। पिंडवायपडियाए-भिक्षा ग्रहण करने की प्रतिज्ञा से। अणुपविढे समाणे-प्रवेश करता हुआ।से-वह-भिक्षु। जं-जो।पुण-फिर। जाणिजा-जाने-ज्ञान प्राप्त करे।असणं वा-अन्नादि चतुर्विध आहार। अट्ठमिपोसहिएसु वा-अष्टमी पौषध-व्रत विशेष के महोत्सव में अथवा। अद्धमासिएसु वा-अर्द्धमासिक व्रत विशेष के महोत्सव में। मासिएसु वा-मासिक व्रत विशेष के महोत्सव में। दोमासिएसु वा-द्विमासिक व्रत विशेष के महोत्सव में। तेमासिएसुवा-त्रैमासिक व्रत विशेष के महोत्सव में। चउमासिएसुवा-चातुर्मासिक व्रत विशेष के महोत्सव में। पंचमासिएसुवा-पांच मासिक व्रत विशेष के महोत्सव में। छम्मासिएसुवा-पाण्मासिक व्रत विशेष के महोत्सव में। उऊसुवा- ऋतु के मौसम में। उऊसंधीसुवा-ऋतुओं की सन्धि में। उऊपरियट्टेसु वा- ऋतु परिवर्तन में। बहवे-बहुत से। समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगे-श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और भिखारी इन सबको।एगाओ उक्खाओ-एक बर्तन से। परिएसिजमाणे परोसता हुआ। पेहाए-देखकर । दोहिं उक्खाहि-दो बर्तनों से। परिएसिजमाणे-परोसता हुआ। पेहाए-देखकर। तिहिं-तीन । उक्खाहिंबर्तनों से। परिएसिजमाणे-परोसता हुआ। चउहिं-चार।उक्खाहिं-बर्तनों से। परिएसिजमाणे-परोसता हुआ। पेहाए-देखकर। कुम्भीमुहाओ-छोटे मुंह वाले बर्तन से। वा-अथवा। कलोवाइओ वा- बांस की टोकरी से। संनिहिसंनिचयाओ वा-संचय किए हुए स्निग्ध घृतादि में से। परिएसिजमाणे-परोसता हुआ।पेहाए-देखकर। तहप्पगारं-इस प्रकार का। असणं वा ४-अशनादिक चतुर्विध आहार। अपुरिसंतरकडं वा-अपुरुषान्तरकृत अर्थात् जो पुरुषान्तर-अन्यपुरुष कृत नहीं है। जाव-यावत्। अणासेवियं-अनासेवित। अफासुयं-अप्रासुक। जाव-यावत् मिलने पर।नो पडिग्गाहिज्जा-ग्रहण न करे।अह-अथ। पुण-पुनः। एवं-इस प्रकार। जाणिज्जाजाने। पुरिसंतरकडं-पुरुषान्तर कृत । आसेवियं-आसेवित। फासुयं-प्रासुक आहार। जाव-यावत् मिलने पर। पडिग्गाहिज्जा-ग्रहण करले।
____ मूलार्थ-वह साधु व साध्वी गृहस्थों के घर में आहार प्राप्ति के निमित्त प्रविष्ट होने पर अशनादि चतुर्विध आहार आदि के विषय में इस प्रकार जाने-यह अशनादि आहार अष्टमी पौषधव्रत विशेष के महोत्सव में एवं अर्द्धमासिक, मासिक, द्विमासिक, त्रिमासिक, चतुर्मासिक, पंचमासिक और षाणमासिक महोत्सव में, तथा ऋतु, ऋतुसन्धि और ऋतु परिवर्तन महोत्सव में बहुत से श्रमण शाक्यादि भिक्षु, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और भिखारियों को एक बर्तन से, दो बर्तनों से एवं तीन
और चार बर्तनों से परोसते हुए देखकर तथा छोटे मुख की कुम्भी और बांस की टोकरी से परोसते हुए देखकर एवं सचित्त किए हुए घी आदि पदार्थों को परोसते हुए देखकर इस प्रकार के अशनादि चतुर्विध आहार जो पुरुषान्तर कृत नहीं है यावत् अनासेवित-अप्रासुक है ऐसे आहार को मिलने पर भी साधु ग्रहण न करे। और यदि इस प्रकार जाने कि यह आहार पुरुषान्तर कृत यावत् आसेवित प्रासुक और एषणीय है तो मिलने पर ग्रहण करले।
हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को उस समय गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रवेश नहीं करना चाहिए या प्रविष्ट हो गया है तो उसे आहार नहीं ग्रहण करना चाहिए- जिसके यहां