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प्रथम अध्ययन, उद्देशक १
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यह साधु और साध्वी की समग्रता अर्थात् निर्दोष वृत्ति है । वह सर्व शब्दादि अर्थों में यत्न वाला, संयत अथवा ज्ञान दर्शन और चारित्र से युक्त है। अतः वह इस वृत्ति का परिपालन करने में सदा यत्नशील हो। इस प्रकार मैं कहता हूँ ।
हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में इस बात का आदेश दिया गया है कि साधु को निम्न कुलों में भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए। जिन कुलों में नित्य प्रति दान दिया जाता है, जिन कुलों में अग्रपिंड - जो आहार पक रहा हो उसमें से कुछ भाग पहले निकाल कर रखा हुआ आहार दिया जाता है, जिन कुलों में आहार का आधा या चतुर्थ हिस्सा दान में दिया जाता है और जिन कुलों में शाक्यादि भिक्षु निरन्तर आहार के लिए जाते हों, ऐसे कुलों में जैन साधु-साध्वी को प्रवेश नहीं करना चाहिए। क्योंकि ऐसे घरों में भिक्षा को जाने से या तो उन भिक्षुओं की - जो वहाँ से सदा-सर्वदा भिक्षा पाते हैं, अंतराय लगेगी या उन भिक्षुओं के लिए फिर से आरम्भ करके आहार बनाना पड़ेगा। इसलिए साधु को ऐसे घरों में आहार नहीं लेना चाहिए।
जैन साधु सर्वथा निर्दोष आहार ही ग्रहण करता है। इस बात को सूत्रकार ने 'सव्वट्ठेहिं समिए ....., इत्यादि पदों से अभिव्यक्त किया है । इनका स्पष्टीकरण करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है- मुनि सरस एवं नीरस जैसा भी निर्दोष आहार उपलब्ध होता है, उसे समभाव से ग्रहण करता है। वह रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि विषयों में अनासक्त रहता है। वह पांच समिति से युक्त है, राग-द्वेष से दूर रहने का प्रयत्न करता है, वह रत्न - त्रय - ज्ञान, दर्शन और चारित्र से युक्त होने से संयत है । और वह निर्दोष मुनिवृति का परिपालन करता है, यही उसकी समग्रता है * ।
'त्तिबेमि' पद से सूत्रकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि ये विचार मेरी कल्पना मात्र नहीं हैं। आर्य सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू से कहते हैं कि हे जम्बू ! मैंने जैसा भगवान महावीर के मुख से सुना है वैसा ही तुम्हें बता रहा हूँ ।
॥ प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
* सर्वार्थे - सरसविरसादिभिराहारगतैः यदि वा रूपरसगन्धस्पर्शगतैः सम्यगितः समितः संयत इत्यर्थः । पंचभिर्वासमितिभिः समितः शुभेतरेषु रागद्वेषविरहित इतेि यावत् एवं भूतश्च सहहितेन वर्तते इति सहितः सहितो वा ज्ञान दर्शन चारित्रैः ।
आचारांग वृत्ति २,१,१, ९