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॥ चतुर्थ चूला- विमुक्ति॥
सोलहवां अध्ययन
(विमुक्ति)
पन्द्रहवें अध्ययन में ५ महाव्रत और उसकी २५ भावनाओं का उल्लेख किया गया है। अब प्रस्तुत अध्ययन में विमुक्ति-मोक्ष के साधन रूप साधनों का उल्लेख किया गया है। यह स्पष्ट है कि महाव्रतों की साधना कर्मों से मुक्त होने के लिए ही है। अतः इस अध्ययन में निर्जरा के साधनों का विशेष . रूप से वर्णन किया गया है। इस वर्णन को पांच अधिकारों में विभक्त किया गया है- १. अनित्य अधिकार. २. पर्वत अधिकार. ३.रूप्य (चांदी) अधिकार. ४. भजगत्वग अधिकार और ५. समद्र अधिकार। इस तरह समस्त साधना का उद्देश्य मुक्ति है। मुक्ति भी देश मुक्ति एवं सर्व मुक्ति अपेक्षा से दो प्रकार की कही गई है। सामान्य साधु से लेकर भवस्थ केवली पर्यन्त की देश मुक्ति मानी गई है और अष्ट कर्मबन्धन का सर्वथा क्षय करके निर्वाण पद को प्राप्त करना सर्व मुक्ति कहलाती है। उक्त उभय प्रकार की मुक्ति की प्राप्ति कर्म निर्जरा से होती है। अतः निर्जरा के साधनों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- अणिच्चमावासमुविंति जंतुणो, पलोयए सुच्चमिणं अणुत्तरं।
विऊसिरे विन्नु अगारबंधणं, अभीरु आरंभपरिग्गहं चए॥१॥ छाया- अनित्यमावासमुपयान्ति जन्तवः, प्रलोकयेत श्रुत्वा इदमनुत्तरम्। ,
व्युत्सृजेत् विज्ञः अगारबन्धनं, अभीरुः आरम्भपरिग्रहं त्यजेत्॥१॥
पदार्थ- इणं-इस-जिन प्रवचन को, जो। अणुत्तरं-सर्व श्रेष्ठ है, जिसमें यह कहा गया है कि। जंतुणो-जीव। आवासं-मनुष्य आदि जन्मों को प्राप्त करते हैं, वे। अणिच्चं-अनित्य हैं ऐसा। सुच्चं-सुनकर। पलोयए-उस पर गंभीरता एवं अन्तर हृदय से विचार कर के।विन्नु-विद्वान व्यक्ति।आगारबंधणं वा-पारिवारिक स्नेह बन्धन को। विऊसिरे-त्याग दे, और वह। अभीरु-सात प्रकार के भय एवं परीषहों से नहीं डरने वाला साधक।आरंभपरिंग्गह-समस्त प्रकार के सावद्य कर्म एवं परिग्रह को भी। चए-छोड़ दे।
मूलार्थ-सर्व श्रेष्ठ जिन प्रवचन में यह कहा गया है कि आत्मा मनुष्य आदि जिन योनियों में जन्म लेता है, वे स्थान अनित्य हैं। ऐसा सुनकर एवं उस पर हार्दिक चिन्तन करके समस्त भयों से निर्भय बना हुआ विद्वान पारिवारिक स्नेह बन्धन का, समस्त सावध कर्म एवं परिग्रह का त्याग कर दे।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत गाथा में अनित्यता के स्वरूप का वर्णन किया गया है। भगवान ने