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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध __छाया- स भिक्षुर्वा यावत् सन् यत् पुनः जानीयात् अशनं वा ४ बहून् श्रमणान् ब्राह्मणान् अतिथीन् कृपण वणीपकान् प्रगणय्य २ समुद्दिश्य प्राणादीन् वा ४ समारभ्य यावद् न प्रतिगृण्हीयात्।
पदार्थ-से-भिक्खू वा-वह साधु या साध्वी। जाव-यावत्। समाणे-घर में प्रवेश किए हुए। सेवह। जं-जो। पुण-फिर।असणं वा-अशनादि को। जाणिजा-जाने यथा। बहवे-बहुत से ।समणा-शाक्यादि भिक्षु। माहणा-ब्राह्मण। अतिहि-अतिथि। किवण-कृपण-दरिद्र। वणीमए-भिखारी इन सब को । पगणिय २-गिन २कर। समुद्दिस्स-इनको उद्देश्य कर। पाणाई वा-प्राणी आदि का। समारब्भ-आरम्भ कर जो आहार तैयार किया गया हो वह। जाव-यावत् मिलने पर। नो पडिग्गाहिज्जा-ग्रहण न करे।
मूलार्थ-गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी इस बात का अन्वेषण करे कि जो आहारादि बहुत से शाक्यादि भिक्षु, ब्राह्मण, भिखारी आदि को गिन-गिन कर या उनके उद्देश्य से जीवों का आरम्भ-समारम्भ करके बनाया हो, उसे साधु ग्रहण न करे।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि किसी गृहस्थ ने शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, भिखारी आदि की गणना करके उनके लिए आहार तैयार किया है। जब कि यह आहार साधु के उद्देश्य से नहीं बनाया गया फिर भी साधु के लिए अग्राह्य है। क्योंकि बौद्ध भिक्षु एवं जैन साधु दोनों के लिए 'श्रमण' शब्द का प्रयोग होता है, अतः संभव है कि गृहस्थ ने उस आहार के बनाने में उन्हें भी साथ गिन लिया हो। इसके अतिरिक्त ऐसा आहार ग्रहण करने से लोगों के मन में यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि अन्य भिक्षुओं की तरह जैन साधु भी अपने लिए बनाए गए आहार को लेते हैं। और उक्त आहार में से ग्रहण करने से जिन व्यक्तियों के लिए वह आहार बनाया गया है, उनकी अन्तराय भी लगती है तथा उनके लिए बनाए गए आहार को लेने के लिए जैन साधु को जाते हुए देखकर उनके मन में द्वेष भी जाग सकता है। इसलिए जैन साधु को ऐसा आहार भी स्वीकार नहीं करना चाहिए। ,
अब विशुद्ध कोटि के अनेषणीय आहार के विषय में सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पविढे समाणे से जं पुण जाणिज्जा-असणं वा ४ बहवे समणा माहणा अतिहिकिवणवणीमए समुहिस्स जाव चेएइ तं तहप्पगारं असणं वा ४ अपुरिसंतरकडं वा अबहिया नीहडं अणत्तट्ठियं अपरिभुत्तं अणासेवियं अफासुयं अणेसणिजं जाव नो पडिग्गाहिज्जा।अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतरकडं बहिया नीहडं अत्तट्ठियं परिभुत्तं आसेवियं फासुयं एसणिजं जाव पडिग्गाहिज्जा॥८॥
___ छाया- स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा. यावत् प्रविष्टः सन् स यत् पुनः जानीयात्-अशनं वा ४ बहून् श्रमणान् ब्राह्मणान् अतिथीन् कृपणवणीमकान् समुद्दिश्य यावद् ददाति तं