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________________ ४९४ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध समणुजाणिज्जा-अनुमोदन भी नहीं करूंगा।जाव-यावत्। वोसिरामि-परिग्रह से अपनी आत्मा को पृथक् करता हूं-परिग्रह रूप आत्मा का व्युत्सर्जन करता हूं। मूलार्थ हे भगवन् ! पांचवें महाव्रत के विषय में सर्व प्रकार के परिग्रह का परित्याग करता हूं। मैं अल्प, बहुत, सूक्ष्म, स्थूल तथा सचित्त और अचित्त किसी भी प्रकार के परिग्रह को न स्वयं ग्रहण करूंगा, न दूसरों से ग्रहण कराऊंगा और न ग्रहण करने वालों का अनुमोदन करूंगा। मैं अपनी आत्मा को परिग्रह से सर्वथा पृथक् करता हूं। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में साधक को परिग्रह से निवृत्त होने का आदेश दिया गया है। परिग्रह से आत्मा में अशान्ति बढ़ती है। क्योंकि, रात-दिन उसके बढ़ाने एवं सुरक्षा करने की चिन्ता बनी रहती है। जिससे साधक निश्चिन्त मन से स्वाध्याय आदि की साधना भी नहीं कर सकता है। इसलिए भगवान ने साधक को परिग्रह से सर्वथा मुक्त रहने का आदेश दिया है। साधु को थोड़ा या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल किसी भी तरह का परिग्रह नहीं रखना चाहिए। इसके साथ आगम में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है साध साधना में सहायक उपकरणों को स्वीकार कर सकता है। वस्त्र का परित्याग करने वाले जिनकल्पी मुनि भी कम से कम मुखवस्त्रिका और रजोहरण ये दो उपकरण अवश्य रखते हैं। वर्तमान में दिगम्बर मुनि भी मोर पिच्छी और कमण्डल तो रखते ही हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि संयम में सहायक होने वाले पदार्थों को रखना या ग्रहण करना परिग्रह नहीं है। परन्तु उन पर ममता, मूर्छा एवं आसक्ति रखना परिग्रह है। आगम में स्पष्ट कहा गया है कि संयम एवं आध्यात्मिक साधना में तेजस्विता लाने वाले उपकरण (वस्त्र-पात्र आदि) परिग्रह नहीं हैं । मूर्छा एवं उन पर आसक्ति करनां परिग्रह है। तत्वार्थ सूत्र में भी वस्त्र रखने को परिग्रह नहीं कहा है। उन्होंने भी आगम में अभिव्यक्त मूर्छा, या ममत्व को ही परिग्रह माना है । वस्त्र एवं पात्र ही क्यों, यदि अपने शरीर पर भी ममत्व है, अपनी साधना पर भी ममत्व है तो वह भी परिग्रह का कारण बन जाएगा। अतः साधक को मूर्छा-ममता एवं आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संयम साधना में संलग्न रहना चाहिए। अब पंचम महाव्रत की भावनाओं का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं। मूलम्- तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति। तत्थिमा पढमा भावणा-सोयओणं जीवे मणुनामणुन्नाइं सद्दाइं सुणेइ मणुनामणुन्नेहिं सद्देहिं नो सजिजा नो रजिज्जा नो गिज्झेजा नो मुज्झिजा नो अज्झोववज्जिजा नो विणिघायमावज्जेजा, केवली बूया-निग्गंथेणं मणुन्नामणुन्नेहिं सद्देहिं सज्जमाणे रज्जमाणे जाव विणिघायमावजमाणे संतिभेया १ न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा।। - श्री दशवकालिक सूत्र। २ मूर्छाः परिग्रहः। - तत्त्वार्थ सूत्र।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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