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________________ ४९१ पञ्चदश अध्ययन भंसिजा-भ्रष्ट हो जाता है इस लिए। निग्गंथे-निर्ग्रन्थ। इत्थिपसुपंडगसंसत्ताइं-स्त्री, पशु और नपुंसक आदि से युक्त। सयणासणाइं-उपाश्रय और आसनादि को। सेवित्तए-सेवन करने वाला। नो सिया-न हो। त्ति-इस प्रकार यह। पंचमा-पांचवीं। भावणा-भावना कही गई है। एतावया-इस प्रकार। चउत्थे महव्वए-चतुर्थ महाव्रत को। काएण-काया से। फासिए-स्पर्शित करता हुआ। जाव-यावत्। आराहिए यावि भवइ-आराधित होता है। भंते ! हे भगवन् ! चउत्थे-चतुर्थ। महव्वए०-महाव्रत को मैं स्वीकार करता हूं। मूलार्थ-चतुर्थ महाव्रत की ये पांच भावनाएं हैं. उन पांच भावनाओं में से प्रथम भावना इस प्रकार है- निर्ग्रन्थ साधु बार-बार स्त्रियों की काम जनक कथा न कहे। केवली भगवान कहते हैं कि बार-बार स्त्रियों की कथा कहने वाला साधु शान्ति रूप चारित्र और ब्रह्मचर्य का भंग करने वाला होता है तथा शान्ति रूप केवलिप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः साधु को स्त्रियों की बार-बार कथा नहीं करनी चाहिए यह प्रथम भावना है। अब चतुर्थ महाव्रत की दूसरी भावना कहते हैं- निर्ग्रन्थ-साधु कामराग से स्त्रियों की मनोहर-तथा मनोरम इन्द्रियों को सामान्य अथवा विशेष रूप से न देखे। केवली भगवान कहते हैं- जो निर्ग्रन्थ-साधु स्त्रियों की मनोहर-मन को लुभाने वाली इन्द्रियों को आसक्ति पूर्वक देखता है वह चारित्र और ब्रह्मचर्य का भंग करता हुआ सर्वज्ञ प्रणीत धर्म से भी भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ-साधु को स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियों को काम दृष्टि से कदापि नहीं देखना चाहिए। यह दूसरी भावना का स्वरूप है। अब तीसरी भावना का स्वरूप कहते हैं- निर्ग्रन्थ-साधु स्त्रियों के साथ की हुई पूर्व रति और क्रीडा-काम क्रीडा का स्मरण न करे। केवली भगवान कहते हैं जो निर्ग्रन्थ साधु स्त्रियों के साथ की गई पूर्व रति और क्रीडा आदि का स्मरण करता है वह शान्तिरूप चारित्र का भेद करता हुआ यावत् सर्वज्ञ प्रणीत धर्म से भी भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए संयमशील मुनि को पूर्व रति और क्रीडा आदि का स्मरण नहीं करना चाहिए। यह तीसरी भावना का स्वरूप है। अब चतुर्थ भावना का स्वरूप वर्णन करते हैं- वह निर्ग्रन्थ प्रमाण से अधिक आहारपानी तथा प्रणीत रस-प्रकाम भोजन न करे। क्योंकि केवली भगवान कहते हैं कि इस प्रकार के आहार-पानी एवं प्रणीत-रस प्रकाम भोजन के भोगने से निर्ग्रन्थ चारित्र का विघातक और धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ को अति मात्रा में आहार-पानी और सरस आहार नहीं करना चाहिए। पांचवीं भावना का स्वरूप इस प्रकार है- निर्ग्रन्थ-साधु स्त्री, पशु और नपुंसक आदि से युक्त शय्या और आसन आदि का सेवन न करे, केवली भगवान कहते हैं कि ऐसा करने से वह ब्रह्मचर्य का विघातक होता है और केवली भाषित धर्म से पतित हो जाता है। इसलिए निर्ग्रन्थ स्त्री, पशु, पंडक आदि से संसक्त शयनासनादि का सेवन न करे। यह पांचवीं भावना कही गई है।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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