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________________ ४८७ पञ्चदश अध्ययन तृतीय। महव्वयं-महाव्रत के विषय में सर्व प्रकार से अदत्तादान से निवृत्त होता हूँ। मूलार्थ-इस प्रकार साधु सम्यग् रूप से तीसरे महाव्रत का आराधन किया करे। शिष्य यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं जीवन पर्यन्त के लिए अदत्तादान से निवृत होता हूँ। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में यही बताया गया है कि इस तरह विवेक पूर्वक आचरण करके ही साधक तीसरे महाव्रत का परिपालन कर सकता है। अब चतुर्थ महाव्रत का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं। मूलम्- अहावरं चउत्थं महव्वयं पच्चक्खामि सव्वं मेहुणं, से दिव्वं वा माणुस्सं वा तिरिक्खज़ोणियं वा नेव सयं मेहुणं गच्छेज्जा तं चेव अदिन्नादाणवत्तव्वया भाणियव्वा जाव वोसिरामि। छाया- अथापरं चतुर्थं महाव्रतं प्रत्याख्यामि सर्वं मैथुनं तद् दिव्यं वा मानुष्यं वा तिर्यग्योनिकं वा नैव स्वयं मैथुनं गच्छेत् तच्चैवम् अदत्तादानवक्तव्यता भणितव्या यावत् व्युत्सृजामि। पदार्थ- अहावरं-अब अन्य। चउत्थं-चतुर्थ। महव्वयं-महाव्रत में। सव्वं मेहुणं-सर्वप्रकार के मैथुन का-विषय सेवन का। पच्चक्खामि-प्रत्याख्यान करता हूं।से-वह। दिव्वं वा-देव सम्बन्धि। माणुस्संमनुष्य सम्बन्धि। तिरिक्खजीणियं वा-तिर्यंच सम्बन्धि। मेहुणं-मैथुन को। नेव-न। सयं-स्वयं-अपने आप। गच्छेजा-सेवन करूंगा।तंचेव-अन्य सब।अदिन्नादाणवत्तव्वया-अदत्तादान विषयक प्रकरण में जैसा कहा है उसी प्रकार। भाणियव्वा-यहां मैथुन के सम्बन्ध में भी जान लेनी चाहिए। जाव-यावत्। वोसिरामि-अपने आत्मा को मैथुन धर्म से पृथक करता हूं। मूलार्थ-अब चतुर्थ महाव्रत के विषय में कहते हैं- हे भगवन् ! मैं देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी सर्वप्रकार के मैथुन का तीन करण और तीन योग से प्रत्याख्यान करता हूं, शेष वर्णन अदत्तादान के समान जानना चाहिए। साधक गुरु के सामने यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं मैथुन से अपनी आत्मा को सर्वथा पृथक् करता हूं। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। भोग की प्रवृत्ति से मोह कर्म को उत्तेजना मिलती है। इससे आत्मा कर्म बन्ध से आबद्ध होता है और संसार में परिभ्रमण करता है। अतः साधु को अब्रह्मचर्य-विषय -भोग से सर्वथा निवृत्त होना चाहिए। मैथुन कर्म का सर्वथा परित्याग करने वाला व्यक्ति ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है। क्योंकि इसका त्याग करके वह मोह कर्म की. गांठ से छूटने का, मुक्त होने का प्रयत्न करता है। इसलिए साधक न तो स्वयं विषय-भोग का सेवन करे, न दूसरे व्यक्ति को विषय-वासना की ओर प्रवृत्त करे और न उस ओर प्रवृत्त व्यक्ति का समर्थन ही करे। इस तरह साधु प्रतिज्ञा करता है कि भगवन ! मैं गुरु एवं आत्म-साक्षी से उसका त्याग-प्रत्याख्यान करता हूं एवं उसकी निन्दा एवं गर्हणा करता हूँ। अब चौथे महाव्रत की भावनाओं का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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