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________________ १४ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध कर नहीं सकेगा और उसे रोकने से अनेक बीमारियों का शिकार हो जाएगा। और पेशाब करना चाहे तो उनके सामने तो कर नहीं सकता, इसलिए उसे एकान्त एवं निर्दोष स्थान ढूंढने के लिए बहुत दूर जाना पड़ेगा या फिर सदोष स्थान में ही मल त्याग करना होगा। इस तरह आहार, शौच, स्वाध्याय एवं विहार में गृहस्थ आदि के साथ जाने से संयम में अनेक दोष लगते हैं और अन्य मत के भिक्षुओं के अधिक परिचय से साधु की श्रद्धा एवं संयम में शिथिलता एवं विपरीतता भी आ सकती है तथा उनके घनिष्ठ परिचय के कारण श्रावकों के मन में सन्देह भी पैदा हो सकता है। इन्ही सब कारणों से साधु को उनके साथ घनिष्ठ परिचय करने एवं भिक्षा आदि के लिए उनके साथ जाने का निषेध किया गया है, न कि किसी द्वेष भाव से। अतः साधु को अपने संयम का निर्दोष पालन करने के लिए स्वतन्त्र रूप से गृहस्थ आदि के घर में प्रवेश करना चाहिए। ___ इनके साथ आहार आदि का लेन-देन करने से भी संयम में अनेक दोष लग सकते हैं, अतः उनके साथ आहार-पानी के लेन-देन का निषेध करते हुए सूत्रकार कहते हैं - ___मूलम्- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा. जाव पविढे समाणे नो अन्नउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा परिहारिओ वा अपरिहारियस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दिज्जा वा अणुपइज्जा वा॥५॥ छाया- स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा यावत् प्रविष्टः सन् न अन्यतीर्थिकाय वा गृहस्थाय वा पारिहारिको वा अपरिहारिकाय अशनं वा पानं वा खादिम वा स्वादिमं वा दद्याद् वा अनुप्रदापयेद् वा। ___ पदार्थ-से-वह। भिक्खू वा- साधु या। भिक्खुणी वा-साध्वी। जाव-यावत् , गृहस्थ के घर में। पविढे समाणे-प्रवेश करते हुए।अन्नउत्थियस्स वा-अन्यतीर्थी के लिए अथवा। गारत्थियस्स-गृहस्थी के लिए। परिहारिओ-दोष दूर करने वाला उत्तम साधु।अपरिहारियस्स-पार्श्वस्थादि साधु के लिए। असणं वाअन्न अथवा। पाणं वा-पानी।खाइमं वा-या खादिम पदार्थ अथवा। साइमं वा-स्वादिम वस्तु। नो दिजा वान देवे या।अणुपइज्जा वा-न दिलावे। मूलार्थ-गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी, अन्यतीर्थी परपिंडोपजीवी गृहस्थ-याचक और पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी साधु को, निर्दोष भिक्षा ग्रहण करने वाला श्रेष्ठ साधु अन्न, जल, खादिम और स्वादिम रूप पदार्थों को न तो स्वयं दे और न किसी से दिलाए। . हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी एवं अन्य मत के साधुओं को आहार-पानी नहीं देना चाहिए। इससे संयम में अनेक दोष लगने की संभावना है। उनके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहने के कारण श्रद्धा में शिथिलता एवं विपरीतता आ सकती है। लोगों के मन में यह भी बात घर कर सकती है कि ये अन्य मत के साधु अधिक प्रतिष्ठित एवं श्रेष्ठ हैं, तभी तो ये मुनि. भी इनका आहार-पानी से सम्मान करते हैं। इससे वे श्रावक (गृहस्थ) उनका सम्मान करने लगेंगे और फलस्वरूप मिथ्यात्व की अभिवृद्धि होगी। इसके अतिरिक्त अन्य मत के साधुओं को आहार देने से सबसे बड़ा दोष गृहस्थ की चोरी का लगेगा। क्योंकि गृहस्थ के घर से वह साधु अपने एवं अपने साथियों
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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