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________________ ४३४ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध अप्पुस्सुयाइं-उत्सुकता से रहित अर्थात् उदासीनता से। उरालाइं-प्रधान। माणुस्सगाई-मनुष्य सम्बन्धि। पंचलक्खणाई-पांच प्रकार के।सद्दफरिसरसरूवगंधाइं-शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध से युक्त।कामभोगाईकाम भोगों का। परियारेमाणे-उपभोग करते हुए। एवं-इस प्रकार से। विहरइ-विहरण करते हैं। च-समुच्चय अर्थ में है।णं-वाक्यालंकार में है। मूलार्थ-जन्म के बाद भगवान महावीर का पांच धाय माताओं के द्वारा लालन-पालन होने लगा। दूध पिलाने वाली धाय माता, स्नान कराने वाली धाय माता, वस्त्रालंकार पहनाने वाली धाय माता, क्रीड़ा कराने वाली और गोद में खिलाने वाली धाय माता, इन ५ धाय माताओं की गोद में तथा मणिमंडित रमणीय आंगन प्रदेश में खेलने लगे और पर्वत गुफा में स्थित चम्पक बेल की भान्ति विघ्न बाधाओं से रहित होकर यथाक्रम बढने लगे। उसके पश्चात ज्ञान-विज्ञान संपन्न भगवान महावीर बाल भाव को त्याग कर युवावस्था में प्रविष्ट हुए और मनुष्य सम्बन्धि उदार शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्धादि से युक्त पांच प्रकार के काम भोगों का उदासीन भाव से उपभोग करते हुए विचरने लगे। हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि भगवान सुख पूर्वक बढ़ने लगे। उनके लालन-पालन के लिए ५ धाय माताएं रखी हुई थीं। दूध पिलाने वाली, स्नान कराने वाली, वस्त्रालंकार पहनाने वाली, क्रीड़ा कराने वाली और गोद में खिलाने वाली, इन विभिन्न धाय माताओं की गोद में आमोद-प्रमोद से खेलते हुए भगवान ने बाल भाव का त्याग कर यौवन वय में कदम रखा। यौवन का नशा बड़ा विचित्र होता है। परन्तु, भगवान ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न थे। अतः प्राप्त भोगों में भी वे आसक्त नहीं हुए। वे शब्द, रस, स्पर्श आदि भोगों का उदासीन भाव से उपभोग करते थे। इस कारण वे संक्लिष्ट कर्मों का बन्धन नहीं करते थे। क्योंकि भोगों के साथ जितनी अधिक आसक्ति होती है, कर्म बन्धन भी उतना ही प्रगाढ़ होता है। भगवान उदासीन भाव से रहते थे, अतः उन का कर्म बन्धन भी शिथिल ही होता था। ___ अब भगवान के गुण निष्पन्न नाम एवं उनके परिवार का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- समणे भगवं महावीरे कासवगुत्ते, तस्सणं इमे तिन्नि नामधिज्जा एवमाहिजंति, तंजहा-अम्मापिउसंतिए वद्धमाणे (१) सहसंमुइए समणे (२) भीमं भयभेरवं उरालं अचेलयं परीसहंसहइत्तिकटु देवेहिं से नामं कयं समणे भगवं महावीरे (३) समणस्स णं भगवओ महावीरस्स पिया कासवगुत्तेणं, तस्स णं तिन्नि नाम० तं सिद्धत्थे इ वा, सिजसे इ वा, जसंसे इ वा। समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अम्मा वासिट्ठस्सगुत्ता तीसेणं तिन्नि ना तं-तिसला इवा, विदेहदिन्ना इवा, पियकारिणी इ वा।समणस्स णं भ० पित्तिअए सुपासे कासवगुत्तेणं। समण जिढे भाया नंदिवद्धणे कासवगुत्तेणं, समप्पस्स णं जेट्ठा भइणी सुदंसणा कासवगुत्तेणं, समणस्स णं भग० भज्जा जसोया
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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