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पञ्चदश अध्ययन
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आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित आचारांग सूत्र में एवं कल्प सूत्र में "साहरिज्जमाणे जाणइ" के स्थान पर 'साहरिज्जमाणे नो जाणइ' पाठ छपा है। परन्तु प्राचीन हस्त लिखित एवं अन्य मुद्रित प्रतियों में 'साहरिजमाणे जाणइ' पाठ उपलब्ध होता है। आगमोदय समिति से प्रकाशित आचारांग का पाठ कल्पसूत्र एवं उसकी सुबोधिका व्याख्या के आधार पर रखा गया है। परन्तु यह पाठ उचित प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि स्वर्ग से गर्भ में आते समय का काल बहुत सूक्ष्म होने के कारण वे उसे नहीं जानते हैं। परन्तु गर्भ संहरण काल इतना सूक्ष्म नहीं होता है। देव द्वारा की जाने वाली संहरण की क्रिया में अन्तरमुहूर्त का समय लग जाता है। अतः इस काल में होने वाली क्रिया को वे जान सकते हैं। और कल्प सूत्र की 'सुबोधिका टीका' के लेखक उपाध्याय श्री विनय विजय जी उस पर चर्चा करते हुए प्राचीन प्रतियों के पाठ का ही समर्थन करते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि "साहरिज्जमाणे जाणइ" पाठ ही प्रामाणिक
___इस प्रसंग पर यह प्रश्न हो सकता है कि गर्भ का संहरण करते समय गर्भ को कोई कष्ट तो नहीं होता ? आगम में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि इस क्रिया से गर्भ को कोई कष्ट नहीं हुआ। यह क्रिया देव द्वारा निष्पन्न हुई थी, इसलिए गर्भस्थ जीव को बिल्कुल त्रास नहीं पहुंचा। उसे सुख पूर्वक एक गर्भ से दूसरे गर्भ में स्थानान्तरित कर दिया गया।
भगवान के जन्म के विषय का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- तेणं कालेणं तेणं समएणं तिसलाए खत्तियाणीए अहऽन्नया कयाई नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाण राइंदियाणं वीइक्कंताणं जे से गिम्हाणं पढमे मासे दुच्चे पक्खे चित्तसुद्धे तस्स णं चित्तसुद्धस्स तेरसीपक्खेणं हत्थु० जोग० समणं भगवं महावीरं आरोग्गा आरोग्गं पसूया।
- छाया- तस्मिन् काले तस्मिन् समये त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः अथ अन्यदा कदाचित् नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अर्धाष्टमरात्रिन्दिवे व्यतिक्रान्ते योऽसौ ग्रीष्माणां प्रथमो मासः द्वितीयः पक्षःचैत्रशुक्लःतस्य चैत्रशुक्लस्य त्रयोदशी पक्षः (दिवसः) उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रेण समं योगमुपागते चन्द्रमसि आरोग्या आरोग्यं प्रसूता।
१ ननु संह्रियमाणो न जानातीति कथं युक्तं? संहरणस्य असंख्यसामयिकत्वात्, भगवतश्च संहरण कर्तृ देवापेक्षया विशिष्टज्ञानवत्वात् ? उच्यते, इदं वाक्यं संहरणस्य कौशलज्ञापकम्, तथा तेन संहरणं कृतं भगवतः यथा भगवता ज्ञातमपि अज्ञातमिवाभूत् पीडाऽभावात्, यथा कश्चिद् वदति त्वया मम पादात्तथा कंटक उद्धृतः यथा मया ज्ञात एव नेति, सौख्यतिशये च सत्येवं विधो व्यपदेशः सिद्धान्तेऽपि दृश्यते, तथा हि-'तहिं देवा वंतरीआ, वरतरुणीगीयवाइपरवेणं। निच्चं सुहिअपमुइआ, गयंपि कालं न जाणंति।
-कल्पसूत्र, सुबोधिका व्याख्या। २ पभूणं भंते ! हरिणेगमेसी सक्कदूए इत्थीगल्भं नहसिसि वा रोमकूवंसि वा साहरित्तए वा नीहरित्तए वा? हंता पभू, नो चेवणं तस्स गब्भस्स आबाहं वा विबाहं वा उप्पाएजा, छविच्छेयं पुण करिजा।
- श्री भगवती सूत्र,श०५, सूत्र १८६ ।