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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
हंसते हुए इन कर्मों का बंध किया है उसी तरह हंसते हुए इनका वेदन करूंगा। परन्तु इनकी उपशान्ति के लिए किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं दूंगा और न तंत्र-मंत्र का सहारा ही लूंगा ।
वृत्तिकार ने यही कहा है कि हे साधक, तुझे यह दुख समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। क्योंकि बन्धे हुए कर्म समय पर अपना फल दिए बिना नष्ट नहीं होते हैं। और इन सब कर्मों का कर्ता भी तू ही है। अत: उसके फलस्वरूप प्राप्त होने वाले सुख-दुख को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। क्योंकि सदसद् का ऐसा विवेक तुझे अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं होता है। इसलिए विवेक पूर्वक तुम्हें वेदना को समभाव से सहन करना चाहिए।
'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें ।
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॥ त्रयोदश अध्ययन समाप्त ॥
पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्तवायं । न खलु भवति नाशः कर्मणां संचितानाम् । इति सहगणयित्वा यद्यदायाति सम्यक् । सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्ते । १ ।
आचारांग वृत्ति ।