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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
रह सकते हैं। कुछ पदार्थ अग्नि पर पकने या उसमें दूसरे पदार्थ का स्पर्श होने पर अचित होते हैं। इस तरह साधु साध्वी को सबसे पहले सचित्त एवं अचित्त पदार्थों का परिज्ञान होना चाहिए। और यदि उन्हें दी जाने वाली औषध सचित्त प्रतीत होती हो तो वे उसे ग्रहण न करें और वह सजीव न हो तथा पूर्णतया निर्दोष हो तो साधु-साध्वी उसे ग्रहण कर सकते हैं।
प्रस्तुत सूत्र में 'कृत्स्न' आदि जो पांच पद दिए गए हैं, इनसे वनस्पति की सजीवता सिद्ध की है। उन (योनियों) में भी जीव रहते हैं एवं उनके प्रदेशों में भी जीव रहते हैं। जैसे चना आदि अन्न हैं। उनके जब तक बराबर दो विभाग न हों तब तक उनमें जीवों के प्रदेश रहने की संभावना है। प्रश्न हो सकता है कि जब प्रथम सूत्र में सचित्त पदार्थ ग्रहण करने का निषेध कर दिया तो फिर प्रस्तुत सूत्र में सचित्त औषध एवं फलों के निषेध का क्यों वर्णन किया? इसका कारण यह कि जैनेतर साधु वनस्पति में जीव नहीं मानते और वे सचित्त औषध एवं फलों का प्रयोग करते रहे हैं और आज भी करते हैं । इसलिए पूर्ण अहिंसक साधु के लिये यह स्पष्ट कर दिया गया है कि वह सचित्त औषध एवं फलों को ग्रहण नहीं करे ।
अब सूत्रकार आहार की ग्राह्यता एवं अग्राह्यता का उल्लेख करते हुए कहते हैंमूलम् - से भिक्खू वा० जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा पिहूयं वा बहुरयं वा भुज्जियं वा मंथुं वा चाउलं वा चाउलपलंबं वा सई संभज्जियं अफासुयं जाव नो पडिग्गाहिज्जा | से भिक्खू वा जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जापिहुयं वा जाव चाउलपलंबं वा असई भज्जियं दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा भज्जियं फासूयं एसणिज्जं जाव पडिग्गाहिज्जा ॥ ३ ॥
छाया - स भिक्षुर्वा० यावत् सन् स यत् पुनः जानीयात् पृथुकं वा बहुरजः वा भर्जितं वा मन्थुं वा चाउलां वा तन्दुलां चाउलप्रलम्बं सकृत् संभर्जितं अप्रासुकं यावद् न गृहीयात् । स भिक्षुर्वा० यावत् प्रविष्टः सन् स यत् पुनः जानीयात् पृथुकं यावत् चाउलप्रलम्बं वा असकृत् भर्जितं द्विकृत्वः वा त्रिकृत्वः वा भर्जितं प्रासुकं एषणीयं यावत् प्रतिगृण्हीयात् । पदार्थ - से- वह । भिक्खू - साधु । वा अथवा साध्वी । जाव समाणे - - यावत् गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ। से-वह- भिक्षु । जं- जो । पुण- फिर । जाणिज्जा- जाने - आहार विषयक ज्ञान प्राप्त करे यथा । पिहुयं वा-शाली यव गोधूमादि अथवा । बहुरयं वा - जिसमें सचित्त रज बहुत है। भुज्जियं वा अग्नि द्वारा अर्द्ध पक्व अथवा मंथुं वा - गोधूमादि का चूर्ण । चाउलं वा- अथवा चावल । चाउलपलंबं वा अथवा धान्यादि का चूर्ण | सई - एक बार | संभज्जियं-संभर्जित अग्नि से भूना हुआ। अफासुयं अप्रासुक - सचित्त । जाव - यावत् । नो
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डिग्गाहिज्जा ग्रहण न करे। से भिक्खू वा गृहस्थ के घर में प्रविष्ट, वह साधु अथवा साध्वी । जाव समाणे- यावत् भिक्षार्थ जाने पर । से वह भिक्षु । जं- जो । पुण- फिर । जाणिज्जा - जाने पिहुयं वा स्याली यव गोधूमादि अथवा । जाव - यावत् । चाउलपलंबं वा धान्यादि का चूर्ण । असई - अनेक बार । भज्जियं-भूना हुआ। दुक्खुत्तो वा - दो बार अथवा । तिक्खुत्तो वा - तीन बार । भज्जियं भुना हुआ है। फासूयं-प्रासु ।