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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध किसी भी मुनि को गृहस्थ से पैर आदि की मालिश नहीं करवानी चाहिए और गृहस्थ से उनका प्रक्षालन भी नहीं करवाना चाहिए।
इसी तरह यदि कोई गृहस्थ साधु को अपनी गोद में या पलंग पर बैठाकर उसे आभूषण आदि से सजाए या उसके सिर के बाल, रोम, नख आदि को साफ करे तो साधु ऐसी क्रियाएं न करवाए। इस पाठ से यह स्पष्ट होता है कि यह जिनकल्पी मुनि के प्रकरण का है, और वह केवल मुखवस्त्रिका और रजोहरण लिए हुए है। क्योंकि इस पाठ में बताया गया है कि कोई गृहस्थ मुनि के सिर के, कुक्षि के तथा गुप्तांगों के बढ़े हुए बाल देखकर उन्हें साफ करना चाहे तो साधु-ऐसा न करने दे। यहां पर मूंछ एवं दाढ़ी के बालों का उल्लेख नहीं किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि मुखवस्त्रिका के कारण उसके दाढ़ी एवं मूंछों के बाल दिखाई नहीं देते हैं और चादर एवं चोलपट्टक नहीं होने के कारण कुक्षि एवं गुप्तांगों के बाल परिलक्षित हो रहे हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि सर्वथा नग्न रहने वाले जिनकल्पी मुनि भी मुखवस्त्रिका और रजोहरण रखते थे अतः यदि कोई गृहस्थ कुक्षि आदि के बाल साफ करे तो साधु उससे साफ न कराए।
इससे यह स्पष्ट होता है कि साधु को गृहस्थ से पैर दबाने आदि की क्रियाएं नहीं करवानी चाहिएं। क्योंकि यह कर्म बन्ध का कारण है, इसलिए साधु मन, वचन और शरीर से इनका आसेवन न करे। और बिना किसी विशेष कारण के परस्पर में भी उक्त क्रियाएं न करे। क्योंकि दूसरे साधु के शरीर आदि का स्पर्श करने से मन में विकार भाव जागृत हो सकता है और स्वाध्याय का महत्वपूर्ण समय यों ही नष्ट हो जाता है। अतः साधु को परस्पर में मालिश आदि करने में समय नहीं लगाना चाहिए। परन्तु विशेष परिस्थिति में साधु अपने साधर्मिक साधु की मालिश आदि कर सकता है, उसके घावों को भी साफ कर सकता है। अस्तु, यह पाठ उत्सर्ग मार्ग से संबद्ध है और उत्सर्ग-मार्ग में साधु को परस्पर में ये क्रियाएं नहीं करनी चाहिएं।
इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं
मूलम्- से सिया परो सुद्धणं असुद्धेणं वा वइबलेण वा तेइच्छं आउट्टे से असुद्धेणं वइबलेणं तेइच्छं आउट्टे।से सिया परो गिलाणस्स सचित्ताणि वा कंदाणि वा मूलाणि वा तयाणि वा हरियाणि वा खणित्तु वा कड्डित्तु वा कड्डावित्तु वा तेइच्छं आउट्टाविज नो तं सा० २ कडुवेयणा पाणभूयजीवसत्ता वेयणं वेइंति, एयं खलु समिए सया जए सेयमिणं मन्निजासि।त्तिबेमि॥१७३॥
___ छाया- तस्य स्यात् परः शुद्धेन अशुद्धेन वा वाग्वलेन चिकित्साम् आवर्तेत (व्याध्युपशमं कर्तुमभिलषेत् ) तस्य स्यात् पर: अशुद्धेन वाग्बलेन चिकित्सामावर्तेत ॥ तस्य . स्यात् परः ग्लानस्य सचित्तानि वा कन्दानि वा मूलानि वा त्वचो वा हरितानि वा खनित्वा कर्षित्वा वा कर्षयित्वा वा चिकित्सामावर्वैत (कर्तुमभिलषेत्) नो तामस्वादयेत् नो तां नियमयेत्। कटुकवेदनां प्राणिभूतजीवसत्त्वा वेदनां वेदयन्ति। एतत् खलु समितः सदा यतेत