SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टम अध्ययन ३७५ २-मैं कायोत्सर्ग के समय अचित स्थान में ठहरूंगा, अचित्त भीत आदि का आश्रय भी लूंगा, तथा हस्त पाद आदि का संकोचन प्रसारण भी करूंगा, किन्तु पादों से भ्रमण नहीं करूंगा । ३- मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में रहूंगा, अचित्त भीत आदि का सहारा भी लूंगा, परन्तु हस्तपादादि का संकोच प्रसारण एवं पादों से भ्रमण नहीं करूंगा। ४- मैं कायोत्सर्ग के समय अचित स्थान में ठहरूंगा, परन्तु भीत आदि का अवलम्बन नहीं लूंगा तथा हस्त-पाद आदि का संचालन और पादों से भ्रमण आदि कार्य भी नहीं करूंगा, परन्तु एक स्थान में स्थित होकर कायोत्सर्ग के द्वारा शरीर का सम्यक्तया निरोध करूंगा और परिमित काल के लिए शरीर के ममत्व का परित्याग कर चुका हूं अतः उक्त समय में यदि कोई मेरे केश, श्मश्रू और नख आदि का उत्पाटन करेगा तब भी मैं अपने ध्यान को नहीं तोडूंगा । इन पूर्वोक्त चार प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा का धारक साधु अन्य किसी भी साधु की जो प्रतिमा का धारक नहीं- अहंकार में आकर अवहेलना न करे किन्तु सब में समान भाव रखता हुआ विचरे । यही संयमशील साधु का समग्र आचार है, इस प्रकार मैं कहता हूँ । हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में कायोत्सर्ग की विधि का उल्लेख किया गया है स्थान संबन्ध में पूर्व में बताई गई विधि को फिर से दोहराया गया है कि साधु को अण्डे एवं जालों आदि से रहित निर्दोष स्थान में ठहरना चाहिए और उसके साथ कायोत्सर्ग के चार अभिग्रहों का भी वर्णन किया गया है। यह स्पष्ट है कि साधु की साधना मन, वचन और काया योग का सर्वथा निरोध करने के लिए है । परन्तु यह कार्य इतना सुगम नहीं है कि साधु शीघ्रता से इसे साध सके । अतः उस स्थिति तक पहुंचने के लिए कायोत्सर्ग एक महत्वपूर्ण साधन है। इसके द्वारा साधक सीमित समय के लिए अपने योगों को रोकने का प्रयास करता है । इसमें भी सभी साधकों की शक्ति का ध्यान रखा गया है, जिससे प्रत्येक साधक सुगमता के साथ अपने लक्ष्य स्थान तक पहुंचने में सफल हो सके। इसके लिए कायोत्सर्ग करने वाले साधकों के लिए चार अभिग्रह बताए गए हैं। पहले अभिग्रह में साधक अचित्त भूमि पर खड़ा होकर कायोत्सर्ग करता है, आवश्यकता पड़ने पर वह अचित्त दीवार का सहारा भी ले सकता है, हाथ-पैर आदि का संकुचन एवं प्रसारण भी कर सकता है और थोड़ी देर के लिए कुछ कदम चल भी सकता है। दूसरे अभिग्रह में साधक कुछ आगे बढ़ता है। अचित्त भूमि पर खड़ा हुआ साधक आवश्यकता पड़ने पर अचित्त दीवार का सहारा ले लेता है, हाथ-पैर आदि का संकुचन - प्रसारण भी कर लेता है, परन्तु वह अपने स्थान से क्षण मात्र के लिए भी चलता नहीं है। वह अपनी शारीरिक गति को रोक लेता है। तीसरे अभिग्रह में वह अपनी साधना में थोड़ा सा और विकास करता है। अब वह हाथ-पैर आदि के संकुचन-प्रसारण आदि को रोक कर स्थिर मन से खड़े रहने का प्रयत्न करता है और आवश्यकता पड़ने पर केवल अचित्त दीवार का सहारा लेता है ।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy