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________________ ३६४ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध खंड को, जो कि।अप्पंडं-अंडादि से रहित होने पर भी। अतिरिच्छछिन्नं २-तिरछा छेदन नहीं किया हुआ और न खण्ड-खण्ड किया गया है तो उसको भी अप्रासुक जानकर। नो प०-ग्रहण न करे। से जं-वह साधु या साध्वी फिर आम्र फल को जाने।अंबडालगंवा-यावत् आम्रफल के सूक्ष्म-सूक्ष्म खण्ड किए हुए हैं। अप्पंडं-अंडादि से रहित है और। तिरिच्छछिन्नं-तिरछा छेदन किया हुआ है। वुच्छिन्नंखण्ड २ किया हुआ है तथा परिपक्व होने से अचित्त हो गया है उसको। फासुयं-प्रासुक जान कर। पडि-ग्रहण करे। से भि०-वह साधु या साध्वी यदि। अभिकंखिजा-चाहे। उच्छुवणं-इक्षु वन में। उवागच्छित्तएजाना। जे-जो। तत्थ-वहां। ईसरे-इक्षु वन का स्वामी है। जाव-यावत्। उग्गहंसि०-उसकी आज्ञा में ठहरे।अह भिक्खू-अतः साधु। उच्छं-इक्षु को। भुत्तए वा पा०-खाना या पीना। इच्छिजा-चाहे तो। से-वह भिक्षु। जंजो।पुण-फिर। उच्छु-इक्षु के सम्बन्ध में यह। जाणिज्जा-जाने कि।सअंडं-जो इक्षु अंडों से युक्त।जाव-यावत् जालों से युक्त है उसको। नो पडि०-ग्रहण न करे। अतिरिच्छछिन्नं-जो तिरछा छेदन नहीं किया हुआ। तहेवउसी प्रकार अर्थात् आम्र फल के समान दूसरा आलापक जानना।तहेव-उसी प्रकार। तिरिच्छन्नेऽवि-तिरछा छेदा हुआ भी आलापक जानना यह आलापक अचित्त विषयक है और इससे पहला सचित विषय में है। से भि०-वह साधु अथवा साध्वी। अभिकंखिज्जा-चाहे। अंतरुच्छुयं वा-इक्षु के पर्व भाग का मध्य अथवा। उच्छुगंडियं वा-इक्षु की गंडिका-कतली। उच्छुचोयगं वा-अथवा इक्षु की छाल। उच्छुसा०-इक्षु का रस। उच्छुडा०-इक्षु के सूक्ष्म खण्ड। भुत्तए वा-भोगने अथवा। पा०-पीने। से-वह भिक्षु। जं-जो। पुण-फिर। जाणिजा-जाने।अंतरुच्छुयं वा-इक्षु के पर्व का मध्य भाग। जाव-यावत्। डालगंवा-इक्षु के सूक्ष्म २ खण्ड। सअंडं-अंडादि से युक्त हों तो। नो पडि-ग्रहण न करे। से भि०-वह साधु या साध्वीं। से जं०-यह जाने। अंतरुच्छुयं वा-इक्षु के पर्व का मध्य भाग। जाव-यावत्। अप्पंडं वा-अंडादि से रहित हो तो। जाव-यावत्। पडि०-ग्रहण कर ले। अतिरिच्छछिन्न-जो तिरछा छेदन नहीं किया हुआ अतः सचित्त होने से। तहेव-उसी प्रकार अग्राह्य है। से भि०-वह साधु या साध्वी। ल्हसुणवणं-यदि लशुन के वन में। उवागच्छित्तए-गमन करना। अभिकंखि०-चाहे तो यावत्। तिन्निवि-तीनों ही। आलावगा-आलापक। तहेव-उसी प्रकार पूर्व की भांति जानना। नवरं-केवल इतना विशेष है। ल्हसुणं-यहां पर लशुन का अधिकार समझना चाहिए। से भि०-वह साधु अथवा साध्वी। अभिकंखिज्जा-चाहे। ल्हसुणं वा-लशुन को। ल्हसुणकंदं वा-लशुन के कन्द को। ल्हचोयगं वा-लशुन की त्वचा-छाल को अथवा। ल्हसुणनालगं वा-लशुन की नाल को। भुत्तए वा-भोगना तथा पीना। से जं पुण-वह जो फिर। ल्हसुणं वा-लशुन-लशुन कन्द। जाव-यावत्। ल्हसुणबीयं वा-लशुन के बीज को, जो। सअंडं-अंडादि से युक्त है। जाव-यावत्। नो पडि-ग्रहण न करे। एवं-इसी प्रकार। अतिरिच्छछिन्नेऽवि-जो तिरछा छेदन नहीं किया हुआ, जो कि सचित्त है उसे ग्रहण न करे। तिरिच्छछिन्नेतिरछा छेदन किया हुआ है जो कि अचित्त है। जाव-यावत्। पडि०-ग्रहण कर ले। __ मूलार्थ-यदि कोई संयम निष्ठ साधु या साध्वी आम के वन में ठहरना चाहे तो वह उस बगीचे के स्वामी या अधिष्ठाता से उसके लिए याचना करते हुए कहे कि हे आयुष्मन् गृहस्थ! मैं यहां पर ठहरना चाहता हूं। जितने समय के लिए आप आज्ञा देंगे उतने समय ठहर कर बाद में विहार कर दूंगा। इस तरह बागवान की आज्ञा प्राप्त होने पर वह वहां ठहरे। यदि वहां स्थित साधु को
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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