SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४२ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध नाणत्तं-इसमें इतना विशेष है यथा। तिल्लेण वा-तैल से या। घए०-घृत से अथवा। नव-नवनीत से। वसाए वा-वसा-चर्बी अथवा औषधि विशेष से। सिणाणादि-या सुगन्धित स्नानादि से। जाव-यावत्। अन्नयरंसि वा-अन्य किसी पदार्थ से पात्र संस्पर्शित हुआ हो तो। तहप्पगा-तथाप्रकार के। थंडिलंसि-स्थंडिल में जाकर। पडिलेहिय २-प्रतिलेखना कर अर्थात् भूमि को देख कर। पम० २-उसे प्रमार्जित कर। तओ-तदनन्तर। संजयामेव-यत्नापूर्वक। आमजिजा-पात्र को मसले। एयं खलु-यह निश्चय ही। तस्स भिक्खुस्स-उस भिक्षु का।सामग्गियं-सम्पूर्ण आचार है। जं-जो।सव्वठेहि-सर्व अर्थों से। समिएहि-पांच समितियों से युक्त। सया-सदा। जएज्जासि-यल करे। त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। मूलार्थ-संयमशील साधु या साध्वी जब कभी पात्र की गवेषणा करनी चाहें तो सब से पहले उन्हें यह जानना चाहिए कि तूंबे का पात्र, काष्ठ का पात्र, और मिट्टी का पात्र साधु ग्रहण कर सकता है। और उक्त प्रकार के पात्र को ग्रहण करने वाला साधु यदि तरुण है, स्वस्थ है, स्थिर संहनन वाला है तो वह एक ही पात्र धारण करे, दूसरा नहीं और वह अर्द्धयोजन के उपरान्त पात्र लेने के लिए जाने का मन में संकल्प न करे। यदि किसी गृहस्थ ने एक साधु के लिए प्राणियों की हिंसा करके पात्र बनाया हो तो साधु उसे ग्रहण न करे। इसी तरह अनेक साधु, एक साध्वी एवं अनेक साध्वियों के सम्बन्ध में उसी तरह जानना चाहिए जैसे कि पिण्डैषणा अध्ययन में वर्णन किया गया है। और शाक्यादि भिक्षुओं के लिए बनाए गए पात्र में भी पिण्डैषणा अध्ययन के वर्णन की तरह समझना चाहिए।शेष वर्णन वस्त्रैषणा के आलापकों के समान समझना चाहिए। अपितु जो पात्र नाना प्रकार के तथा बहुत मूल्य के हों-यथा लोहपात्र, त्रपुपात्र-कली का पात्र, ताम्रपात्र, सीसे, चान्दी और सोने का पात्र, पीतल का पात्र, लोह विशेष का पात्र, मणि, कांच और कांसे का पात्र एवं शंख और श्रृंग से बना हुआ पात्र, दांत का बना हुआ पात्र, पत्थर और चर्म का पात्र और इसी प्रकार के अधिक मूल्यवान अन्य पात्र को भी अप्रासुक तथा अनैषणीय जानकर साधु ग्रहण न करे। और यदि लकड़ी आदि के कल्पनीय पात्र पर लोह, स्वर्ण आदि के बहुमूल्य बन्धन लगे हों तब भी साधु उस पात्र को ग्रहण न करे। अतः साधु उक्त दोषों से रहित निर्दोष पात्र ही ग्रहण करे। इसके अतिरिक्त चार प्रतिज्ञाओं के अनुसार पात्र ग्रहण करना चाहिए।१-पात्र देख कर स्वयमेव याचना करूंगा। २-साधु पात्र को देख कर गृहस्थ से कहे-आयुष्मन् गृहस्थ ! क्या तुम इन पात्रों में से अमुक पात्र मुझे दोगे! या वैसा पात्र बिना मांगे ही गृहस्थ दे दे तो मैं ग्रहण करूंगा। ३-जो पात्र गृहस्थ ने उपभोग में लिया हुआ है, वह ऐसे दो-तीन पात्र जिनमें गृहस्थ ने खाद्यादि पदार्थ रखे हों वह पात्र ग्रहण करूंगा। ४-जिस पात्र को कोई भी नहीं चाहता, ऐसे पात्र को ग्रहण करूंगा। __इन प्रतिज्ञाओं में से किसी एक का धारक मुनि किसी अन्य मुनि की निन्दा न करे। किन्तु यह विचार करता हुआ विचरे कि जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का पालन करने वाले सभी मुनि आराधक हैं। पात्र की गवेषणा करते हुए साधु को देख कर यदि कोई गृहस्थ उसे कहे कि आयुष्मन्
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy