SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 356
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चम अध्ययन, उद्देशक १ ३२१ कुण्डल, डोरा, चान्दी, सोना, मणि यावत् रत्नावली आदि बंधे हुए हों अथवा प्राणी बीज और हरी सब्जी आदि बंधी हुई हों। इसलिए तीर्थंकरादि ने पहले ही मुनियों को आज्ञा प्रदान की है कि साधु बिना प्रतिलेखना किए इन वस्त्रों को ग्रहण न करे। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में वस्त्र ग्रहण करने की चार प्रतिज्ञाओं का वर्णन किया गया है१ उद्दिष्ट, २ प्रेक्षित, ३ परिभुक्त, ४ उत्सृष्ट धार्मिक। १-अपने मन में पहले संकल्पित वस्त्र की याचना करना उद्दिष्ट प्रतिज्ञा है। २-किसी गृहस्थ के यहां वस्त्र देखकर उस देखे हुए वस्त्र की ही याचना करना प्रेक्षित प्रतिज्ञा है। ३-गृहस्थ के अन्तर परिभोग या उत्तरीय परिभोग या उसके पहने हुए वस्त्र की याचना करना परिभुक्त प्रतिज्ञा है। ४-मैं वही वस्त्र ग्रहण करूंगा जो कि उत्सृष्ट धर्म वाला-फैंकने योग्य है। इस तरह के अभिग्रहों को धारण करके वस्त्र की याचना करने की विधि ठीक उसी तरह से बताई गई है, जैसे पिंडैषणा अध्ययन में आहार ग्रहण करने की विधि का उल्लेख किया गया है। इसमें दूसरी बात यह बताई गई है कि यदि कोई गृहस्थ वस्त्र की याचना करते समय साधु से यह कहे कि आप मास या १०-१५ दिन के पश्चात् आकर वस्त्र ले जाना, तो साधु उसकी इस बात को स्वीकार न करे। वह स्पष्ट कहे कि यदि आपकी वस्त्र देने की इच्छा हो तो अभी दे दो, अन्यथा कुछ दिन के बाद नहीं आऊंगा। इस निषेध के पीछे दो कारण हैं- एक तो यह है कि यदि उस समय गृहस्थ के पास वस्त्र नहीं है तो वह साध के लिए नया वस्त्र खरीद कर ला सकता है या उसके लिए और कोई सावध क्रिया कर सकता है। दूसरी बात यह है कि किसी कारणवश साधु निश्चित समय पर नहीं पहुंच सके तो उसे भाषा समिति में दोष लगेगा। ___ यदि किसी गृहस्थ की वस्त्र की दुकान हो और उसमें कुछ दिन में वस्त्र आने वाला हो तो साधु कुछ समय के बाद भी वहां जाकर वस्त्र ला सकता है। क्योंकि, उसमें उसके लिए कोई क्रिया नहीं की गई है। परन्तु, इस कार्य के लिए साधु को निश्चित समय के लिए बन्धना नहीं चाहिए। यदि उसे यह ज्ञात हो जाए कि कुछ समय बाद आने वाला वस्त्र निर्दोष है तो वह गृहस्थ से इतना ही कहे कि जैसा अवसर होगा देखा जाएगा। परन्तु, यह न कहे कि मैं अमुक समय पर आकर ले जाऊंगा। वह इतना कह सकता है कि यदि सम्भव हो सका तो मैं अमुक समय पर आने का प्रयत्न करूंगा। इस तरह साधु को सभी दोषों से रहित निर्दोष वस्त्र को अच्छी तरह देखकर ग्रहण करना चाहिए। ऐसा न हो कि उसके किसी कोने में कोई सचित्त या अचित्त वस्तु बन्धी हो या उस पर कोई सचित्त वस्तु लगी हो। अतः वस्त्र ग्रहण करने से पूर्व साधु को इसका सम्यक्तया अवलोकन कर लेना चाहिए। इस विषय पर और विस्तार से विचार करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- से भि० से जं. सअंडं ससंताणं तहप्प० वत्थं अफा० नो प०॥से भि से जं अप्पंडं जाव अप्पसंताणगं अनलं अथिरं अधुवं अधारणिजं रोइजंतं नरुच्चइ तह अफा० नोप०॥से भि से जं. अप्पंडं जाव अप्पसंताणगंअलं थिरं धुवं धारणिजं रोइजंतं रुच्चइ तह वत्थं फासुः पडि०॥ से भि० नो नवए मे वत्थेत्ति कटु नो बहुदेसिएण सिणाणेण वा जाव पघंसिजा॥से भि० नो नवए
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy