________________
-- : अमृत कण :--
जे एगं जाणइ
जो एक आत्मा को जानता है, से सव्वं जाणइ।
वह सब कुछ जानता है। पुरिसा तुममेव तुमं मित्तं, हे साधक तू स्वयं ही अपना मित्र है, किं बहिया मित्तमिच्छसि। .. तू दुनिया में बाहरी मित्र क्यों ढूँढता है। जे आया से विन्नाया, जो आत्मा है वही विज्ञाता है, जे विन्नाया से आया। जो विज्ञाता है वही आत्मा है, जेण विजाणइ से आया, क्योंकि ज्ञान के कारण ही आत्मा शब्द का प्रयोग होता है। से सुयं च अज्झत्थं च मे, मैंने सुना और अनुभव किया है, बन्धं प्पमोक्खो अज्झत्थे। बन्ध और मोक्ष तुम्हारी आत्मा पर ही निर्भर है। सव्वओ पमत्तस्स भयं। जो प्रमादी है, उसे सर्वत्र भय है। सव्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं। अप्रमत्त के लिए कहीं भी भय नहीं है। , कामेसु गिद्धा निचयं करेंति। भोगों में आसक्त प्राणी कर्म संचय करता है, संसिच्चमाणा पुणरेंति गब्भं। और कर्मों से भारी होकर संसार में परिभ्रमण करता है। सच्चम्मि धिई कुव्विहा। सत्य में सदा दृढ़ रहो, एत्थोवरए मेहावी, सत्य में अनुरक्त मेधावी पुरुष सव्वं पावं झोसइ।
सब पापों का नाश कर देता है। जे अणण्णारामे,
जो मोक्ष के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी रुचि नहीं रखता,
से अणन्तदंसी।
वह अचल श्रद्धा-निष्ठ माना गया है।
- आचाराङ्ग सूत्रम्
(xxii)