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________________ २३३ तृतीय अध्ययन, उद्देशक १ । यदि अन्य मार्ग न हो तो उस मार्ग से यत्नापूर्वक जाना चाहिए। .हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को विहार करते समय अपनी दृष्टि गन्तव्य मार्ग पर रखनी चाहिए। अपने सामने की साढ़े तीन हाथ भूमि को देखकर चलना चाहिए। उस समय अपने मन, वचन एवं काय योग को भी इधर-उधर नहीं लगाना चाहिए। यहां तक कि साधु को चलते समय स्वाध्याय एवं आत्मचिन्तन भी नहीं करना चाहिए। उस समय उसका ध्यान विवेक पूर्वक चलने की ओर होना चाहिए और रास्ते में आने वाले क्षुद्र जन्तुओं एवं हरित काय की रक्षा करते हुए गति करनी चाहिए। यदि रास्ते में बीज, हरियाली एवं क्षुद्र जन्तु अधिक हों और उस गांव को दूसरा रास्ता जाता हो- चाहे वह कुछ लम्बा भी पड़ता हो, परन्तु जीवों से रहित हो, तो मुनि को वह जीव-जन्तुओं से युक्त सीधा रास्ता छोड़कर उस निर्दोष मार्ग से जाना चाहिए। यदि दूसरा मार्ग न हो तो यत्नापूर्वक पैरों को संकोच कर या टेढ़े-मेढ़े पैर रखकर या अंगूठे आदि के बल पर उस रास्ते को तय करे अर्थात् उस मार्ग को विवेकपूर्वक पार करे जिससे जीवों को किसी तरह की पीड़ा एवं कष्ट न पहुंचे। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- से भिक्खू वा. गामा० दूइज्जमाणे अंतरा से विरूवरूवाणि पच्चंतिगाणि दस्सुगाययाणि मिलक्खूणि अणायरियाणि दुस्सन्नप्पाणि दुप्पन्नवणिजाणि, अकालपडिबोहीणि अकालपरिभोईणि सइ लाढे विहाराए संथरमाणेहिं जाणवएहिं नो विहारवडियाए पवजिज्जा गमणाए, केवली बूया आयाणमेयं, ते णं बाला अयं तेणे अयं उवचरए अयं ततो आगए त्तिक? तं भिक्खं अक्कोसिज्ज वा जाव उद्दविज वा वत्थं प० कं० पाय० अच्छिंदिज वा भिंदिज वा अवहरिज वा परिट्ठविज वा, अह भिक्खूणं पु० जं तहप्पगाराई विरू पच्चंतियाणि दस्सुगा. जाव विहारवत्तियाए नो पवज्जिज वा गमणाए तओ संजया गा० दू०॥११५॥ छाया- स भिक्षुर्वा ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तराले स विरूपरूपाणि प्रात्यन्तिकानि दस्युकायतनानि म्लेच्छानि अनार्याणि दुःसंज्ञाप्यानि दुष्प्रज्ञाप्यानि अकालप्रतिबोधीनि अकालभोजीनि सति लाढे विहाराय संस्तरमाणेषु जनपदेषु न विहारप्रतिज्ञया प्रतिपद्येत गमनाय। केवली ब्रूयात् आदानमेतत् ते बालाः अयंस्तेनः अयमुपचारकः अयं ततः आगतः इति कृत्वा तंभिक्षु आक्रोशेयुः वा यावत् उपद्रवेयुः वा वस्त्रं वा पतद्ग्रहं ( पात्रं )वा कंबलं वा पादप्रोञ्छनं वा आच्छिन्द्युः वा भिन्द्युः वा अपहरेयुः वा परिष्ठापयेयुः वा अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टं यत् तथाप्रकाराणि विरूपरूपाणि प्रात्यन्तिकानि दस्युकायतनानि यावत् विहार- प्रत्ययाय न प्रतिपद्येत वा गमनाय ततः संयतः ग्रामानुग्रामं गच्छेत्।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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