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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक १
१५९ साधु के लिए। कडिए वा-काष्ठादि से दीवार आदि का संस्कार किया। उक्कंबिए वा-अथवा बांस आदि से बांधा है। छन्ने वा-तृणादि से आच्छादित किया है। लित्ते वा-गोबर आदि से उपलिप्त किया है। घट्टे वा-या संवारा है अथवा। मढे वा-ऊंची-नीची भूमि को समतल बनाया है। संमठे वा-उसे घोट कर कोमल बनाया है और दुर्गन्ध आदि को दूर करने के लिए। संपधूमिए वा-धूप आदि के द्वारा सुगन्धित किया हो। तहप्पगारे-तथा प्रकार का। उवस्सए-उपाश्रय जो कि।अपुरिसंतरकडे-पुरुषान्तर कृत नहीं हैं। जाव-यावत्। अणासेविएअनासेवित है उसमें। ठाणं वा ३-कायोत्सर्ग। सेजं वा-अथवा शैय्या-संस्तारक या।णिसीहियं वा-स्वाध्याय। नो चेइज्जा-न करे। अह पुण एवं जाणिज्जा-फिर वह इस प्रकार जाने कि जो उपाश्रय। पुरिसंतरकडेपुरुषान्तर कृत।जाव-यावत्।आसेविए-आसेवित है तो उसका।पडिलेहित्ता-प्रतिलेखन करके।तओ-तदनन्तर उसमें कायोत्सर्गादि कार्य। चेइज्जा-करे।
मूलार्थ वह साधु या साध्वी उपाश्रय की गवेषणा के लिए ग्राम यावत् राजधानी में जाकर उपाश्रय को जाने, जो उपाश्रय अण्डों से यावत् मकड़ी आदि के जालों से युक्त है तो उसमें वह कायोत्सर्ग, संस्तारक (संथारा) और स्वाध्याय न करे। वह साधु या साध्वी जिस उपाश्रय को अण्डों और मकड़ी के जालों आदि से रहित जाने, उसे प्रतिलेखित और प्रमार्जित करके उसमें कायोत्सर्गादि करे।
जो उपाश्रय एक साधर्मी के उद्देश्य से प्राणी, भूत, जीव और सत्वादि का समारम्भ करके, मोल लेकर, उधार लेकर, किसी निर्बल से छीन कर, यदि सर्व साधारण का है तो किसी एक की भी बिना आज्ञा लिए साधु को देता है तो इस प्रकार का उपाश्रय पुरुषान्तरकृत हो अथवा अपुरुषान्तरकृत, एवं सेवित हो या अनासेवित, उसमें साधु कायोत्सर्ग आदि कार्य न करे। इसी प्रकार जो बहुत से साधर्मियों के लिए बनाया गया हो तथा एक साधर्मिणी या बहुत सी साधर्मिणियों के लिए बनाया गया है उसमें भी स्थानादि कायोत्सर्गादि न करे। और जो उपाश्रय बहुत से श्रमणों तथा भिखारियों के लिए बनाया गया हो उसमें भी स्थान न करे।
जो उपाश्रय शाक्यादि भिक्षुओं के निमित्त षट्काय का समारम्भ करके बनाया गया है, जब तक वह अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित है तब तक उसमें स्थानादि-कायोत्सर्गादि न करे, और यदि वह पुरुषान्तरकृत या आसेवित है तो उसका प्रतिलेखन करके यत्नापूर्वक वहां स्थानादि कार्य कर सकता है।
जो उपाश्रय गृहस्थ ने साधु के लिए बनाया हुआ है उसका काष्ठादि से संस्कार किया है, बांस आदि से बान्धा है, तृणादि से आच्छादित किया है, गोबरादि से लीपा है, संवारा है तथा ऊंची-नीची भूमि को समतल बनाया है, सुकोमल बनाया है और दुर्गन्धादि को दूर करने के लिए सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित किया है तो इस प्रकार का उपाश्रय जब तक अपुरुषान्तरकृत या अनासेवित है, तब तक उस में नहीं ठहरना चाहिए, और यदि वह पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो गया हो तो उस का प्रतिलेखन करके उसमें स्थानादि कार्य कर सकता है, अर्थात् कायोत्सर्ग, संथारा और स्वाध्याय आदि कर सकता है।