________________
१२४
श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पास।गच्छिज्जा-जाए और वहां जाकर। एवं-इस प्रकार।वइज्जा-कहे कि।आउसंतो-हे आयुष्मन् ! समणाश्रमणो ! मम-मेरे। पुरेसंथुया-पूर्व परिचित अर्थात् जिनके पास दीक्षा ग्रहण की है। वा-और। पच्छासंथुयापश्चात् परिचित अर्थात् जिनके पास सूत्र आदि का अध्ययन किया है। तंजहा-जैसे कि। आयरिए वा-आचार्य। उवज्झाए वा-उपाध्याय। पवित्ती वा-साधुओं को यथा योग्य वैयावृत्य आदि में नियुक्त करने वाले प्रवर्तक। थेरे वा-धर्म से भ्रष्ट होने वाले साधुओं को तथा श्रावकों को पुनः धर्म में स्थिर करने वाले स्थविर।गणी वा-गण समूह . की व्यवस्था करने वाले गणि। गणहरे वा-गुरुजनों की आज्ञा से आचार्य रूप में साधुओं को लेकर स्वतन्त्र रूप से विहार करने वाले गणधर और।गणावच्छेइए वा-गच्छ के कार्यों की चिंता-देखभाल करने वाले गणावच्छेदक। अवियाई-इत्यादि को कहे कि आप की आज्ञा हो तो। एएसिं-इन साधुओं को। खद्धं खद्धं-पर्याप्त आहार। दाहामि-दूं? से णेवं-उसके इस प्रकार। वयंतं-बोलने पर। परो-आचार्यादि। वइज्जा-कहें कि। आउसो-हे आयुष्मन्! श्रमण ! कामं खलु-तू अपनी इच्छानुसार। अहापज्जत्तं-यथापर्याप्त। निसिराहि-दे ? जावइयं २जितना-जितना। परो-आचार्य आदि गुरुजन।वदइ-कहें। तावइयं २-उतना- उतना आहार उन्हें। निसिरिजा-दे देवे यदि। परो-आचार्य। वइजा-कहे कि । सव्वमेयं-सभी पदार्थ दे-दे तो। सव्वमेयं-सभी पदार्थ। निसिरिजादे-दे।
मूलार्थ-कोई भिक्षु गृहस्थ के यहां से सम्मिलित आहार को लेकर अपने स्थान पर आता है और अपने साधर्मियों को पूछे बिना जिस-जिस को रुचता है उस-उस के लिए वह दे देता है तो ऐसा करने से वह मायास्थान का सेवन करता है। अतः साधु को ऐसा नहीं करना चाहिए। परन्तु, उसे यह चाहिए कि उपलब्ध आहार को लेकर जहां अपने गुरुजनादि हों जैसे कि-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर और गणावच्छेदक आदि, वहां जाए और उनसे प्रार्थना करे कि हे गुरुदेव ! मेरे पूर्व और पश्चात् परिचय वाले दोनों ही भिक्षु यहाँ उपस्थित हैं यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं इन उपस्थित सभी साधुओं को आहार दे दूं? उस भिक्षु के ऐसा कहने पर आचार्य कहें कि- आयुष्मन् श्रमण ! जिस साधु की जैसी इच्छा हो, उसी के अनुसार उसे पर्याप्त आहार दे दो। आचार्य की आज्ञानुसार सबको यथोचित बांट कर दे देवे। यदि आचार्य कहें कि जो कुछ लाए हो, सभी दे दो, तो बिना किसी संकोच के सभी आहार उन्हें दे दे।
हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि कोई मुनि अपने सांभोगिक साधुओं का आहार लेकर आया है, तो उसे पहले आचार्य आदि की आज्ञा लेनी चाहिए कि मैं यह आहार लाया हूँ, आपकी आज्ञा हो तो सभी साधुओं में विभक्त कर दूं। उसके प्रार्थना करने पर आचार्य आदि जो आज्ञा प्रदान करें उसके अनुसार कार्य करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि साधु को संघ की व्यवस्था करने वाले आचार्य आदि प्रमुख मुनियों की आज्ञा लेकर ही साधु जीवन की प्रत्येक क्रिया में प्रवृत्त होना चाहिए।
आचार्य अभयदेव सूरि ने सात पदवियों का निम्न अर्थ किया है१-आचार्यः- प्रतिबोधक प्रव्राजकादि; अनुयोगाचार्यो वा। २-उपाध्यायः-सूत्रदाता। ३-प्रवर्तकः-प्रवर्तयति साधूनाचार्योपदिष्टेषु वैयावृत्यादिष्विति प्रवर्ती। ४-स्थविरः- प्रवर्तिव्यापारितान् साधून् संयमयोगेषु सीदतः