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प्रथम अध्ययन, उद्देशक ९
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जं परेहिं असमणुन्नायं अणिसिद्धं अफा० जाव नो पडिगाहिज्जा, जं परेहिं समणुन्नायं सम्मं णिसिठ्ठे फासूयं जाव पडिगाहिज्जा, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं ॥ ५५ ॥
छाया - स भिक्षुर्वा २ स यद्० अशनं वा ४ परं समुद्दिश्य बहिर्निष्क्रान्तं यत् परैः असमनुज्ञातं, अनिसृष्टं, अप्रासुकं यावत् न प्रतिगृण्हीयात् । यत् परैः समनुज्ञातं सम्यग् निसृष्टं प्रासुकं यावत्ं प्रतिगृण्हीयात् । एवं खलु तस्य भिक्षोर्भिक्षुक्या वा सामग्र्यम् ।
पदार्थ- से-वह। भिक्खू वा २ - साधु अथवा साध्वी । से जं- जो फिर इस प्रकार जाने यथा । असणं वा ४- अशनादिक चतुर्विध आहार । परं - अन्य भाट आदि को समुद्दिस्स- उद्देश करके उनके निमित्त । बहिया-बाहर। नीहडं-देने के लिए निकाला है। जं-जिसकी । परेहिं गृहस्थों ने। असमणुन्नायं- आज्ञा नहीं दी अर्थात् तुम जहां चाहो और जिसको चाहो दे सकते हो, ऐसा नहीं कहा। अणिसिट्ठे-उस आहार को अभी तक उसे पूरी तरह समर्पित नहीं किया है। ऐसा आहार देने के लिए ले जाया जा रहा हो और यदि मार्ग में साधु मिल जाए और उसे उस आहार को ग्रहण करने की अभ्यर्थना की जाए तो। अफासुयं उस आहार को अप्रासुक जानकर । जाव-यावत् मिलने पर भी । नो पडिगाहिज्जा ग्रहण न करे तथा । जं-जिस के लिए। परेहिं गृहस्थों ने। समणुन्नायंआज्ञा दे दी है और जो। सम्मं भली प्रकार से । निसिठ्ठे उनके स्वाधीन किया गया है तब वह आहार जिस के अधिकार में है वह यदि साधु को आहार ग्रहण करने की विनती करे तो साधु उस आहार को । फासूयं-प्रासुक . जानकर। जाव-यावत्-मिलने पर । पडिगाहिज्जा ग्रहण कर ले। एवं इस प्रकार । खलु निश्चय ही । तस्सउस । भिक्खुस्स- साधु । भिक्खुणीए वा - या साध्वी का । सामग्गियं समग्र सम्पूर्ण साधु भाव है।
मूलार्थ - गृहस्थों के घर में भिक्षार्थ प्रविष्ट साधु या साध्वी भाट आदि के निमित्त बनाया गया जो अशनादिक चतुर्विध आहार घर से देने के लिए निकाला गया है, परन्तु, गृहपति ने अभी तक उस आहार को उन्हें ले जाने के लिए नहीं कहा है, और उनके स्वाधीन नहीं किया है, ऐसी स्थिति में यदि कोई व्यक्ति उस आहार की साधु को विनति करे तो वह उसे अप्रासुक जानकर स्वीकार न करे। और यदि गृहपति आदि ने उन भाटादि को वह भोजन सम्यक् प्रकार से समर्पित कर दिया है और कह दिया है कि तुम जिसे चाहो दे सकते हो। ऐसी स्थिति में वह साधु को विनति करे तो साधु उसे प्राक जानकर ग्रहण कर ले। यही साधु या साध्वी का समग्र आचार है । हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि किसी गृहस्थ ने भाट या अन्य किसी 1. के लिए अशन आदि चार प्रकार का भोजन बनाया है, किन्तु अभी तक न तो उसे दिया गया है, न उसके अधिकार में किया गया है और न उसे यह कहा गया है कि इस आहार को तुम जिसे चाहो दे सकते हो, ऐसी स्थिति में यदि कभी वह उस आहार के लिए साधु को प्रार्थना करे तो साधु उस आहार को अप्रासुक - अकल्पनीय समझ कर ग्रहण न करे। क्योंकि, वह आहार देने वाले व्यक्ति के अधिकार में नहीं है, अतः हो सकता है कि साधु को देते हुए देखकर गृहस्थ के मन में भाट या साधु के प्रति दुर्भाव या